कौन सरसी को अकेली और सहमी छोड़ तुम आये यहाँ हो,कुछ बताओ
कौन सरसी को अकेली और सहमी छोड़ तुम आये यहाँ हो, कुछ बताओ। इस तरफ से रोज़ आना, रोज़ जाना आज सालों से लगा मेरा बराबर, याद पड़ता है नहीं लेकिन कि देखा है कभी पहले तुम्हें मैंने यहाँ पर, यह अचंभे की नज़र हर कंज, दल पर तृण, लहर पर और चेहरे की उदासी, जो छिपाने से नहीं छिपती, बताती है, यहाँ के वास्ते तुम हो प्रवासी; जो चला करते उठाकर गर्व-ग्रीवा स्वागतम कहते उन्हें हम किन्तु फिर भी कौन सरसी को अकेली और सहमी छोड़ तुम आये यहाँ हो, कुछ बताओ।

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