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बैठ, प्रिय साक़ी, मेरे पास, पिलाता जा, बढ़ती जा प्यास! सुनेगा तू ही यदि न पुकार मिलेगा कैसे पार?...

उमर दो दिन का यह संसार लबालब भर ले उर भृंगार! क्षणिक जीवन यौवन का मेल, सुरा प्याली का फेनिल खेल!...

मेरी मधुप्रिय आत्मा प्रभुवर, नित्य तुम्हारे ही इंगित पर चलती है मधु विस्मृत होकर! मेरा कार्य कलाप तुम्हारा,...

कितना रूप राग रंग कुसुमित जीवन उमंग! अर्ध्य सभ्य भी जग में मिलती है प्रति पग में!...

दीपशिखा महादेवी को दीपशिखे, तुमने जल जल कर ऊर्ध्व ज्योति की वर्षण, ये आलोक ऋचाएँ तुमको करता सहज समर्पण।...

सतत यत्न कर सुख हित कातर जर्जर प्राण, जीर्ण अब वेश, श्रीहत तन, निर्वेद युक्त मन, कुंठित यौवन का आवेश!...

मधु बाला के साथ सुरा पी, उमर विजन में कर तू वास, जग से दूर, जहाँ जीवन के तापों का न मिले आभास!...

हे मनुष्य, गोपन रहस्य यह स्वर्ग लोक से हुआ प्रकाश, मात्र तुम्हारे अंतर से ही निखिल सृष्टि का हुआ विकास!...

आतप आकुल मृदुल कुसुम कुल हरने मर्म तृषा निज, प्राण ऊपर उठकर हृदय पात्र भर करता स्वर्ग सुधा का पान!...

स्वर्गिक अप्सरि सी प्रिय सहचरि हो हँसमुख सँग, मधुर गान हो, सुरा पान हो, लज्जारुण रँग!...

विश्व वीणा का जो कल गान, प्रेम वह गान! तरुण पिक की जो मादक तान, प्रेम वह तान!...

अधर सुख से हों स्पंदित प्राण, बहे या विरह अश्रु जल धार, फूल बरसें, या कंटक, वाण, मुझे प्रभु की इच्छा स्वीकार!...

मदिर नयन की, फूल वदन की प्रेमी को ही चिर पहचान, मधुर गान का, सुरा पान का मौजी ही करता सम्मान!...

जग-जीवन में जो चिर महान, सौंदर्य-पूर्ण औ सत्‍य-प्राण, मैं उसका प्रेमी बनूँ, नाथ! जिसमें मानव-हित हो समान!...

उस गुलवदनी को पाकर भी पा न सकोगे उसका प्यार, जब तक क्रूर विरह का कंटक सखे, न कर देगा उर पार!...

कर्म निरत जन ही देवों से होते पोषित निरलस रे वे स्वयं अहर्निशि रहते जागृत! दिति पुत्रों को अदिति सुतों के कर चिर आश्रित मैंने अपने को देवों को किया समर्पित!...

दो शब्दों में कह दूँ तुमसे उमर अंत में सच्ची बात, उसके विरहानल में जल कर पाएगी यह राख नजात!...

ग्राम नहीं, वे ग्राम आज औ’ नगर न नगर जनाकर, मानव कर से निखिल प्रकृति जग संस्कृत, सार्थक, सुंदर। ...

विद्रुम औ' मरकत की छाया, सोने-चाँदी का सूर्यातप; हिम-परिमल की रेशमी वायु, शत-रत्न-छाय, खग-चित्रित नभ!...

सुरा पान को, प्रणय गान को सखे, समझते जो अपराध, जो रूखे सूखे साधू हैं, भाता जिनको वाद विवाद;...

जीवन की साधना असफल जो सफल बना सिद्धि सही चिर तपना! जीवन की साधना!...

मधु के दिवस, गंधवह सालस डोल रहा वन में भर मर्मर! सकरुण घन फूलों का आनन धुला रहा, बरसा जल सीकर!...

जो दीन-हीन, पीड़ित, निर्बल, मैं हूँ उनका जीवन संबल! जो मोह-छिन्न, जग से विभक्त, वे मुझ में मिलें, बनें सशक्त!...

अपना आना किसने जाना? जग में आ फिर क्या पछताना? जो आते वे निश्वय जाते, तुझको मुझको भी है जाना!...

मदिराधर कर पान, सखे, तू न धर न जुमे का ध्यान, लाज स्मित अधरामृत कर पान! सभी एक से तिथि, मिति, वासर,...

जननी जन्मभूमि प्रिय अपनी, जो स्वर्गादपि चिर गरीयसी! जिसका गौरव भाल हिमाचल स्वर्ण धरा हँसती चिर श्यामल ज्योति मथित गंगा यमुना जल,...

चाँद ने मार रजत का तीर निशा का अंचल डाला चीर, जाग रे, कर मदिराधर पान, भोर के दुख से हो न अधीर!...

मुझे यदि मिले स्वर्ग का द्वार विनय हो मेरी बारंबार, मदिर अधरों वाली सुकुमारि पिलाए मुझे प्रणय मधु धार!...

मैं नहीं चाहता चिर-सुख, मैं नहीं चाहता चिर दुख; सुख-दुख की खेल मिचौनी खोले जीवन अपना मुख। ...

हाय, कहीं होता यदि कोई बाधा हीन निभृत संस्थान मर्म व्यथा की कथा भुलाकर जहाँ जुड़ा सकता मैं प्राण!...

तेरा प्रेम हृदय में जिसके हुआ अंकुरित, बना विभोर, उसे मर्म में छिपा, अश्रु से सींचेगा वह, प्रिय, निशि भोर!...

उमर तीर्थ यात्री ज्यों थक कर करते क्षण भर को विश्राम, नगर प्रांत के पास खोज कर मर्मर तरु छाया अभिराम!...

नील-कमल-सी हैं वे आँख! डूबे जिनके मधु में पाँख— मधु में मन-मधुकर के पाँख! नील-जलज-सी हैं वे आँख!...

मंजरित आम्र-वन-छाया में हम प्रिये, मिले थे प्रथम बार, ऊपर हरीतिमा नभ गुंजित, नीचे चन्द्रातप छना स्फार!...

ईश्वर को मरने दो, हे मरने दो वह फिर जी उट्ठेगा, ईश्वर को मरने दो! वह क्षण क्षण गिरता, जी उठता ईश्वर को चिर नव स्वरूप धरने दो!...

तुम झरो हे निर्झर प्राणों के स्वर झरो हे निर्झर! चिर अगोचर...

कब से विलोकती तुमको ऊषा आ वातायन से? सन्ध्या उदास फिर जाती सूने-गृह के आँगन से!...

शरद के एकांत शुभ्र प्रभात में हरसिंगार के सहस्रों झरते फूल...

अगर हो सकते हमको ज्ञात नियति के, प्रिये, रहस्य अपार, जान सकते हम विधि का भेद, विश्व में क्यों चिर हाहाकार!...

सरित पुलिन पर सोया था मैं मधुर स्वप्न सुख में तल्लीन, विधु वदनी बैठी थी सन्मुख कर में मधु घट धरे नवीन!...