गणपति उत्सव
कितना रूप राग रंग कुसुमित जीवन उमंग! अर्ध्य सभ्य भी जग में मिलती है प्रति पग में! श्री गणपति का उत्सव, नारी नर का मधुरव! श्रद्धा विश्वास का आशा उल्लास का दृश्य एक अभिनव! युवक नव युवती सुघर नयनों से रहे निखर हाव भाव सुरुचि चाव स्वाभिमान अपनाव संयम संभ्रम के कर! कुसमय! विप्लव का डर! आवे यदि जो अवसर तो कोई हो तत्पर कह सकेगा वचन प्रीत, ‘मारो मत मृत्यु भीत, पशु हैं रहते लड़कर! मानव जीवन पुनीत, मृत्यु नहीं हार जीत, रहना सब को भू पर!’ कह सकेगा साहस भर देह का नहीं यह रण, मन का यह संघर्षण! ‘आओ, स्थितियों से लड़ें साथ साथ आगे बढ़ें भेद मिटेंगे निश्वय एक्य की होगी जय! ‘जीवन का यह विकास, आ रहे मनुज पास! उठता उर से रव है,-- एक हम मानव हैं भिन्न हम दानव हैं!’

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