मेरी मधुप्रिय आत्मा प्रभुवर
मेरी मधुप्रिय आत्मा प्रभुवर, नित्य तुम्हारे ही इंगित पर चलती है मधु विस्मृत होकर! मेरा कार्य कलाप तुम्हारा, धर्म वंचकों से मैं हारा, पाप पुण्य में मैं प्रभु अनुचर! निखिल लालसाएँ जब उर में, भरते सतत तुम्हीं निज सुर में, तब क्यों हे चिर जीवन सहचर! दोष रोष का हो मुझको भय, कुटिल कर्म क्यों हों न सभी क्षय, जब प्रभुवर चिर करुणा सागर!

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