विद्रुम औ मरकत की छाया
विद्रुम औ' मरकत की छाया, सोने-चाँदी का सूर्यातप; हिम-परिमल की रेशमी वायु, शत-रत्न-छाय, खग-चित्रित नभ! पतझड़ के कृश, पीले तन पर पल्लवित तरुण लावण्य-लोक; शीतल हरीतिमा की ज्वाला दिशि-दिशि फैली कोमलालोक! आह्लाद, प्रेम औ’ यौवन का नव स्वर्ग : सद्य सौन्दर्य-सृष्टि; मंजरित प्रकृति, मुकुलित दिगन्त, कूजन-गुंजन की व्योम सृष्टि! --लो, चित्रशलभ-सी, पंख खोल उड़ने को है कुसुमित घाटी,-- यह है अल्मोड़े का वसन्त, खिल पड़ीं निखिल पर्वत-पाटी!

Read Next