मैं नहीं चाहता चिर सुख
मैं नहीं चाहता चिर-सुख, मैं नहीं चाहता चिर दुख; सुख-दुख की खेल मिचौनी खोले जीवन अपना मुख। सुख-दुख के मधुर मिलन से यह जीवन हो परिपूरण; फिर घन में ओझल हो शशि, फिर शशि से ओझल हो घन। जग पीड़ित है अति-दुख से, जग पीड़ित रे अति-सुख से, मानव-जग में बँट जावें दुख सुख से औ’ सुख दुख से। अविरत दुख है उत्पीड़न, अविरत सुख भी उत्पीड़न, दुख-सुख की निशा-दिवा में, सोता-जगता जग-जीवन। यह साँझ-उषा का आँगन, आलिंगन विरह-मिलन का; चिर हास-अश्रुमय आनन रे इस मानव-जीवन का!

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