देव
कर्म निरत जन ही देवों से होते पोषित निरलस रे वे स्वयं अहर्निशि रहते जागृत! दिति पुत्रों को अदिति सुतों के कर चिर आश्रित मैंने अपने को देवों को किया समर्पित! देवों का है तेज गभीर सिन्धु सा विस्तृत, वे महान सब से विनम्रता से चिर भूषित! मानव, तुम शत हस्त करो वैभव एकत्रित औ’ सहस्र कर होकर उसे करो नित वितरित! इस प्रकार सब पुण्य करो अपने में संचित अपने कृत क्रियमाण कर्म चिर कर संयोजित! गाँवों के पशु तकते ज्यों वन पशुओं का पथ पाप कर्म तुम छोड़ रहो सत्कर्मों में रत! साथ चलो सब के हित बोलो बनो संगठित साथ मनन कर करो समान गुणों को अर्जित! एक ज्ञान औ’ एक प्राण सब रहो सम्मिलित, तुम देवों के तुल्य बनो सहयोग समन्वित! व्रत से दीक्षा, दीक्षा से दक्षिणा ग्रहण कर उससे श्रद्धा, श्रद्धा से कर प्राप्त सत्य वर ऋतंभरा प्रज्ञा से भर निज ज्योतित अंतर तुम देवों के योग्य बनो औ’ मर्त्य से अमर!

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