आँसू की आँखों से मिल भर ही आते हैं लोचन, हँसमुख ही से जीवन का पर हो सकता अभिवादन। ...
तरुण साक़ी भी हो जो साथ अधर पर धरे मधुर मुसकान, सुरा के रँग की भी अविराम मदिर जो वृष्टि करें भगवान!...
भला कैसे कोई निःसार स्वप्न पर जाए जग के वार? हँस रही जहाँ अश्रुजल माल विभव सुख के ओसों की डार!...
गा, कोकिल, बरसा पावक-कण! नष्ट-भ्रष्ट हो जीर्ण-पुरातन, ध्वंस-भ्रंस जग के जड़ बन्धन! पावक-पग धर आवे नूतन,...
देखूँ सबके उर की डाली-- किसने रे क्या क्या चुने फूल जग के छबि-उपवन से अकूल? इसमें कलि, किसलय, कुसुम, शूल! ...
अलि! इन भोली बातों को अब कैसे भला छिपाऊँ! इस आँख-मिचौनी से मैं कह? कब तक जी बहलाऊँ?...
वे चहक रहीं कुंजों में चंचल सुंदर चिड़ियाँ, उर का सुख बरस रहा स्वर-स्वर पर! पत्रों-पुष्पों से टपक रहा स्वर्णातप प्रातः समीर के मृदु स्पर्शों से कँप-कँप!...
निखिल-कल्पनामयि अयि अप्सरि! अखिल विस्मयाकार! अकथ, अलौकिक, अमर, अगोचर, भावों की आधार!...
मुसकुरा दी थी क्या तुम, प्राण! मुसकुरा दी थी आज विहान? आज गृह-वन-उपवन के पास लोटता राशि-राशि हिम-हास,...
अधर घट में भर मधु मुस्कान मूर्ति बोली, ‘ऐ निष्ठावान, तुझे क्यों भाया यह उपचार-- भजन, पूजन, दीपन, शृंगार!’...
पैगंबर के एक शिष्य ने पूछा, ‘हज़रत बंदे को शक है आज़ाद कहाँ तक इंसाँ दुनिया में पाबंद कहाँ तक?’...
कब से विलोकती तुमको ऊषा आ वातायन से? सन्ध्या उदास फिर जाती सूने-गृह के आँगन से!...
द्वाभा के एकाकी प्रेमी, नीरव दिगन्त के शब्द मौन, रवि के जाते, स्थल पर आते कहते तुम तम से चमक--कौन?...
लज्जारुण मुख, बैठी सम्मुख, प्रेयसि कंपित कर से उत्सुक भर ज्वाला रस, हाला हँस-हँस उमर पिलाए, हृदय हो अवश!...
मधुर साक़ी, भर दे मधुपात्र, प्रणय ज्वाला से उर का पात्र! सुरा ही जीवन का आधार, मर्त्य हम, केवल क्षर मृन्मात्र!...
वन-वन, उपवन-- छाया उन्मन-उन्मन गुंजन, नव-वय के अलियों का गुंजन! रुपहले, सुनहले आम्र-बौर, ...
अगर साक़ी, तेरा पागल न हो तुझमें तन्मय, तल्लीन, उमर वह मृत्यु दंड के योग्य भले हो वह मंसूर नवीन!...
जग के दुख-दैन्य-शयन पर यह रुग्णा जीवन-बाला रे कब से जाग रही, वह आँसू की नीरव माला!...
पान पात्र था प्रेम छात्र!— प्रेयसि के कुंचित अलकों में उलझा था, बंदी पलकों में! ग्रीवा पर थी मूँठ सुघर...
वह विजन चाँदनी की घाटी छाई मृदु वन-तरु-गन्ध जहाँ, नीबू-आड़ू के मुकुलों के मद से मलयानिल लदा वहाँ!...
तेरे करुणांबुधि का केवल एक झाग यह नीलाकाश, तेरे आँगन के कोने में, सौ सजीव काबों का वास!...
चीटियों की-सी काली-पाँति गीत मेरे चल-फिर निशि-भोर, फैलते जाते हैं बहु-भाँति बन्धु! छूने अग-जग के छोर।...
वरुण मुक्त कर दो मेरे धिक् जीवन बंधन, पाप निवारक हे प्रकाश से भर मेरा मन! ऊपर और खुलें ये पाश गुणों के उत्तम नीचे प्रथम मध्य में हों श्लथ बंधन मध्यम!...
निभृत विजन में मेरे मन में हुआ एक दिन स्वप्नाभास,-- मुग्ध यौवना गीत गुनगुना बैठी है ज्यों मेरे पास!...
चिर रमणीय बसंत ग्रीष्म वर्षा ऋतु सुखमय स्निग्ध शरद हेमंत शिशिर रमणीय असंशय! मधु केंद्रों को घेर बैठते ज्यों नित मधुवर ज्ञान इंद्रियों पर स्थित सोम पिपासु निरंतर!—...
वह विजन चाँदनी की घाटी छाई मृदु वन-तरु-गन्ध जहाँ, नीबू-आड़ू के मुकुलों के मद से मलयानिल लदा वहाँ!...
प्राण! तुम लघु-लघु गात! नील-नभ के निकुंज में लीन, नित्य नीरव, निःसंग नवीन, निखिल छबि की छबि! तुम छबि-हीन,...
अँधियाली घाटी में सहसा हरित स्फुलिंग सदृश फूटा वह! वह उड़ता दीपक निशीथ का,-- तारा-सा आकर टूटा वह!...
मंजरित आम्र-वन-छाया में हम प्रिये, मिले थे प्रथम बार, ऊपर हरीतिमा नभ गुंजित, नीचे चन्द्रातप छना स्फार!...
लाओ, हे लज्जास्मित प्रेयसि, मदिर लालिमा का घट सुंदर, मधुर प्रणय के मदिरालस में आज डुबाओ मेरा अंतर!...
तन्द्रित तरुतल, छाया शीतल, स्वप्निल मर्मर! हो साधारण खाद्य उपकरण, सुरा पात्र भर!...
दुग्ध पीत अधखिली कली सी मधुर सुरभि का अंतस्तल दीप शिखा सी स्वर्ण करों के इन्द्र चाप का मुख मंडल!...
नवल मेरे जीवन की डाल बन गई प्रेम-विहग का वास! आज मधुवन की उन्मद वात हिला रे गई पात-सा गात,...
बृहद् ग्रंथ मानव जीवन का, काल ध्वंस से कवलित, ग्राम आज है पृष्ठ जनों की करुण कथा का जीवित! युग युग का इतिहास सभ्यताओं का इसमें संचित, संस्कृतियों की ह्रास वृद्धि जन शोषण से रेखांकित। ...
विनत दृष्टि हो बोली करुणा, आँखों में थे आँसू के घन, ‘क्या जाने क्या आप कहेंगे, मेरा परकीया का जीवन!’...
कितने कोमल कुसुम नवल कुम्हलाते नित्य धरा पर झर झर, यह नभ अब तक सुन प्रिय बालक, मिटा चुका कितने मुख सुंदर!...