वे चहक रहीं कुंजों में
वे चहक रहीं कुंजों में चंचल सुंदर चिड़ियाँ, उर का सुख बरस रहा स्वर-स्वर पर! पत्रों-पुष्पों से टपक रहा स्वर्णातप प्रातः समीर के मृदु स्पर्शों से कँप-कँप! शत कुसुमों में हँस रहा कुंज उडु-उज्वल, लगता सारा जग सद्य-स्मित ज्यों शतदल। है पूर्ण प्राकृतिक सत्य! किन्तु मानव-जग! क्यों म्लान तुम्हारे कुंज, कुसुम, आतप, खग? जो एक, असीम, अखंड, मधुर व्यापकता खो गई तुम्हारी वह जीवन-सार्थकता! लगती विश्री औ’ विकृत आज मानव-कृति, एकत्व-शून्य है विश्व मानवी संस्कृति!

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