भला कैसे कोई निःसार
भला कैसे कोई निःसार स्वप्न पर जाए जग के वार? हँस रही जहाँ अश्रुजल माल विभव सुख के ओसों की डार! अथक श्रम से सुख सेज सँवार लेटता जब तू शोक बिसार, बज्र स्वर में कहता द्रुत काल अरे उठ, ग़ाफ़िल, चल उस पार!

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