गा कोकिल, बरसा पावक कण
गा, कोकिल, बरसा पावक-कण! नष्ट-भ्रष्ट हो जीर्ण-पुरातन, ध्वंस-भ्रंस जग के जड़ बन्धन! पावक-पग धर आवे नूतन, हो पल्लवित नवल मानवपन! गा, कोकिल, भर स्वर में कम्पन! झरें जाति-कुल-वर्ण-पर्ण घन, अन्ध-नीड़-से रूढ़ि-रीति छन, व्यक्ति-राष्ट्र-गत राग-द्वेष रण, झरें, मरें विस्मृति में तत्क्षण! गा, कोकिल, गा,कर मत चिन्तन! नवल रुधिर से भर पल्लव-तन, नवल स्नेह-सौरभ से यौवन, कर मंजरित नव्य जग-जीवन, गूँज उठें पी-पी मधु सब-जन! गा, कोकिल, नव गान कर सृजन! रच मानव के हित नूतन मन, वाणी, वेश, भाव नव शोभन, स्नेह, सुहृदता हो मानस-घन, करें मनुज नव जीवन-यापन! गा, कोकिल, संदेश सनातन! मानव दिव्य स्फुलिंग चिरन्तन, वह न देह का नश्वर रज-कण! देश-काल हैं उसे न बन्धन, मानव का परिचय मानवपन! कोकिल, गा, मुकुलित हों दिशि-क्षण!

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