अलि! इन भोली-बातों को
अलि! इन भोली बातों को अब कैसे भला छिपाऊँ! इस आँख-मिचौनी से मैं कह? कब तक जी बहलाऊँ? मेरे कोमल-भावों को तारे क्या आज गिनेंगे! कह? इन्हें ओस-बूँदों-सा फूलों में फैला आऊँ? अपने ही सुख में खिल-खिल उठते ये लघु-लहरों-से, अलि! नाच-नाच इनके संग इनमें ही मिल-मिल जाऊँ? निज इंद्रधनुष-पंखों में जो उड़ते ये तितली-से, मैं भी फूलों के बन में क्या इनके सँग उड़ जाऊँ? क्यों उछल चटुल-मीनों-से मुख दिखला ये छिप जाते! कह? डूब हृदय-सरसी में इनके मोती चुन लाऊँ? शशि की-सी कुटिल-कलाएँ देखो, ये निशि-दिन बढ़ते, अलि! उमड़-उमड़ सागर-सी अम्बर के तट छू आऊँ! चुपके दुबिधा के तम में ये जुगुनू-से उठ जलते, कह, इनके नव-दीपों से तारों का व्योम बनाऊँ? --ना, पीले-तारों-सी ही मेरी कितनी ही बातें कुम्हला चुपचाप गई हैं, मैं कैसे इन्हें भुलाऊँ!

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