चींटियों की-सी काली पाँति
चीटियों की-सी काली-पाँति गीत मेरे चल-फिर निशि-भोर, फैलते जाते हैं बहु-भाँति बन्धु! छूने अग-जग के छोर। लोल लहरों से यति-गति-हीन उमह, बह, फैल अकूल, अपार, अतल से उठ-उठ, हो-हो लीन, खो रहे बन्धन गीत उदार। दूब-से कर लघु-लघु पद-चार— बिछ गये छा-छा गीत अछोर, तुम्हारे पद-तल छू सुकुमार मृदुल पुलकावलि बन चहुँ-ओर। तुम्हारे परस-परस के साथ प्रभा में पुलकित हो अम्लान, अन्ध-तम में जग के अज्ञात जगमगाते तारों-से गान। हँस पड़े कुसुमों में छबिमान जहाँ जग में पद-चिन्ह पुनीत, वहीं सुख के आँसू बन, प्राण! ओस में लुढ़क, दमकते गीत! बन्धु! गीतों के पंख पसार प्राण मेरे स्वर में लयमान, हो गये तुम से एकाकार प्राण में तुम औ’ तुममें प्राण।

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