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हिल रहा धरा का शीर्ण मूल, जल रहा दीप्त सारा खगोल, तू सोच रहा क्या अचल, मौन ? ओ द्विधाग्रस्त शार्दूल ! बोल ?...

धूप चाहते हो घर में तो हँसो-हँसाओ, मग्न रहो, हरदम ज्ञानी बने रहे यदि तो बदली घिर जायेगी। प्रसाधन कौन-सा है निष्कपट आनन्द से बढ़कर? प्रफुल्लित पुष्प-सी हँसती रहो, इतना अलम है।...

तुम समझोगे बात हमारी? उडु-पुंजों के कुंज सघन में, भूल गया मैं पन्थ गगन में, जगे-जगे, आकुल पलकों में बीत गई कल रात हमारी।...

मरणोपरान्त जीने की है यदि चाह तुझे, तो सुन, बतलाता हूँ मैं सीधी राह तुझे, लिख ऐसी कोई चीज कि दुनिया डोल उठे, या कर कुछ ऐसा काम, जमाना बोल उठे।...

गौण, अतिशय गौण है, तेरे विषय में दूसरे क्या बोलते, क्या सोचते हैं। मुख्य है यह बात, पर, अपने विषय में तू स्वयं क्या सोचता, क्या जानता है।...

सावधान रखते स्वदेश को और बढ़ाते मान भी, राजदूत हैं आँख देश की और राज्य के कान भी। तुम्हें बताऊँ यह कि कूटनीतिज्ञ कौन है? वह जो रखता याद जन्मदिन तो रानी का,...

सिंह की हुंकार है हुंकार निर्भय वीर नर की। सिंह जब वन में गरजता है, जन्तुओं के शीश फट जाते, प्राण लेकर भीत कुंजर भागता है।...

उर की यमुना भर उमड़ चली, तू जल भरने को आ न सकी; मैं ने जो घाट रचा सरले! उस पर मंजीर बजा न सकी।...

कभी की जा चुकीं नीचे यहाँ की वेदनाएँ, नए स्वर के लिए तू क्या गगन को छानता है ? बताएँ भेद क्या तारे ? उन्हें कुछ ज्ञात भी हो, कहे क्या चाँद ? उसके पास कोई बात भी हो। ...

प्रत्येक मूर्ख को उससे भी कुछ बड़ा मूर्ख मिल ही जाता, जो उसे समझता है पंडित, जो उसका आदर करता है।...

है बीत रहा विपरीत ग्रहों का लग्न - याम; मेरे उन्मादक भाव, आज तुम लो विराम। उन्नत सिर पर जब तक हो शम्पा का प्रहार, सोओ तब तक जाज्वल्यमान मेरे विचार।...

तुम न होगे, कौन तब इस नाव का मल्लाह होगा? देश में हर व्यक्ति को दिन-रात इसका सोच है। देश के बाहर हमें तुमने प्रतिष्ठा तो दिला दी, देश के भीतर बहुत, पर, बढ़ गया उत्कोच है।...

न्याय शान्ति का प्रथम न्यास है जब तक न्याय न आता, जैसा भी हो महल शान्ति का सुदृढ़ नहीं रह पाता।...

आशीर्वचन कहो मंगलमयि, गायन चले हृदय से, दूर्वासन दो अवनि। किरण मृदु, उतरो नील निलय से। बड़े यत्न से जिन्हें छिपाया ये वे मुकुल हमारे, जो अब तक बच रहे किसी विध ध्वंसक इष्ट प्रलय से।...

प्रेम की आकुलता का भेद छिपा रहता भीतर मन में, काम तब भी अपना मधु वेद सदा अंकित करता तन में।...

जेठ नहीं, यह जलन हृदय की, उठकर जरा देख तो ले; जगती में सावन आया है, मायाविन! सपने धो ले।...

रे प्रवासी, जाग , तेरे देश का संवाद आया। भेदमय संदेश सुन पुलकित खगों ने चंचु खोली;...

वे रचते कानून कि सबके उज्जवल रहें सदा आचार, हम आचरण शुद्ध रखकर विश्राम नियम को देते हैं।...

स्वर्ग की सुख-शान्ति है आराम में, किन्तु, पृथ्वी की अहर्निश काम में। सुख क्या है, पूछ श्रम-निरत किसान से; पूछता है बात क्या तू बाबू-बबुआन से?...

क्षमा करो मोहिनी विपक्षिणी! अब यह शत्रु तुम्हारा हार गया तुमसे विवाद में मौन-विशिख का मारा। यह रण था असमान, लड़ा केवल मैं इस आशय से, तुमसे मिली हार भी होगी मुझको श्रेष्ठ विजय से।...

तुम जीवन की क्षण-भंगुरता के सकरुण आख्यान! तुम विषाद की ज्योति! नियति की व्यंग्यमयी मुस्कान! अरे, विश्व-वैभव के अभिनय के तुम उपसंहार! मन-ही-मन इस प्रलय-सेज पर गाते हो क्या गान?...

यह शिखर नगराज का है, दूर है भूतल, निकट बैकुंठ है। जोर से मत बोल, नीरवता डरेगी, स्वर्ग की इस शान्ति में बाधा पड़ेगी।...

प्रार्थना में शक्ति है ऐसी कि वह निष्फल नहीं जाती। जो अगोचर कर चलाते हैं जगत को, उन करों को प्रार्थना नीरव चलाती है। प्रार्थना से जो उठा है पूत होकर...

संसार पूजता जिन्हें तिलक, रोली, फूलों के हारों से , मैं उन्हें पूजता आया हूँ बापू ! अब तक अंगारों से ...

वेणुवन की छाँह में बैठा अकेला मैं कभी बंसी, कभी सीटी बजाता हूँ। खूब खुश हूँ, आदमी कोई नहीं आता। चाँद केवल रात में आ झाँकता है।...

सन्ध्या की इस मलिन सेज पर गंगे! किस विषाद के संग, सिसक-सिसक कर सुला रही तू अपने मन की मृदुल उमंग?...

नीरव, प्रशान्त जग, तिमिर गहन। रुनझुन रुनझुन किसका शिंजन? किसकी किंकिणि-ध्वनि? मौन विश्व में झनक उठा किसका कंकण? झिल्ली-स्वन? संध्या श्याम परी की हृदय-शिराओं का गुंजन?...

पूछता हूँ मैं तुझे दिनकर! कि तू क्या कर रहा है? राजनगरी में पड़ा क्यो दिन गँवाता है? दौड़ता फिरता समूचे देश में किस फेर में तू? छाँह में अब भी नहीं क्यों बैठ जाता है?...

सबसे बड़ा विश्वविद्यालय अनुभव है, पर, इसको देनी पड़ती है फीस बड़ी। अनुभवी किसको कहोगे? उस पुरुष को जो बहुश्रुत, वृद्ध है, बहुदृष्ट है?...

सब तुमने कह दिया, मगर, यह चुम्बन क्या है? "प्यार तुम्हें करता हूँ मैं", इसमें जो "मैं" है, चुम्बन उसपर मधुर, गुलाबी अनुस्वार है। चुम्बन है वह गूढ़ भेद मन का, जिसको मुख...

लगी खेलने आग प्रकट हो थी विलीन जो तन में; मेरे ही मन के पाहुन आये मेरे आँगन में।...

आज न उडु के नील-कुंज में स्वप्न खोजने जाऊँगी, आज चमेली में न चंद्र-किरणों से चित्र बनाऊँगी। अधरों में मुस्कान, न लाली बन कपोल में छाउँगी, कवि ! किस्मत पर भी न तुम्हारी आँसू बहाऊँगी।...

इतना भी है बहुत, जियो केवल कवि होकर; कवि होकर जीना यानी सब भार भुवन का लिये पीठ पर मन्द-मन्द बहना धारा में; और साँझ के समय चाँदनी में मँडलाकर...

अभिनेता का सुयश शाम की लाली है, चमक घड़ी भर फिर गहरी अँधियाली है।...

राजा बसन्त, वर्षा ऋतुओं की रानी, लेकिन, दोनों की कितनी भिन्न कहानी ! राजा के मुख में हँसी, कंठ में माला, रानी का अन्तर विकल, दृगों में पानी।...

धधका दो सारी आग एक झोंके में, थोड़ा-थोड़ा हर रोज जलाते क्यों हो? क्षण में जब यह हिमवान पिघल सकता है, तिल-तिल कर मेरा उपल गलाते क्यों हो?...

ओ अशेष! निःशेष बीन का एक तार था मैं ही! स्वर्भू की सम्मिलित गिरा का एक द्वार था मैं ही! तब क्यों बाँध रखा कारा में? कूद अभय उत्तुंग शृंग से...

पुस्तक है वह वाटिका सुगन्धों से पूरित, हम जिसे जेब में लिए घूमते-फिरते हैं।...

भूल जो करता नहीं कोई, असल में, देवता है, वह न कोई काम करता है। शून्य को भजता सदा सुनसान में रहकर, मनसदों पर लेटकर आराम करता है।...

खिड़की के शीशे पर कोई बूँद पड़ी है; अर्द्धरात्रि में यह आँसू किसका टपका है? देख न सकता तुम्हें, किन्तु, ओ रोनेवाले! रजनी हो दीर्घायु भले, पर, अमर नहीं है।...