विपक्षिणी
क्षमा करो मोहिनी विपक्षिणी! अब यह शत्रु तुम्हारा हार गया तुमसे विवाद में मौन-विशिख का मारा। यह रण था असमान, लड़ा केवल मैं इस आशय से, तुमसे मिली हार भी होगी मुझको श्रेष्ठ विजय से। जो कुछ मैंने कहा तर्क में, उसमें मेरी वाणी थी सदैव प्रतिकूल हृदय के, सच मानो कल्याणी! और पढ़ा होगा तुमने आकृति पर अंकित मन को, कितनी मदद कहो, मैंने दी है अपने दुश्मन को? एक बहस का मुझे सहारा, जय पाऊँ या हारूँ; ढाल बनाकर बचूँ याकि तलवार बनाकर मारूँ। लेकिन, वार तुम्हारा सुन्दरि! कभी न जाता खाली, देती जिला मरे तर्कों को भी आँखें मतवाली। उचित तुम्हारा अहंकार है, रिपु को भय होगा ही, सुन्दर मुख, मीठी बोली का तर्क अजय होगा ही। और हठी इनके समक्ष भी आकर कौन रहेगा? रहे अगर तो अन्ध-वधिर ही उसको विश्व कहेगा। इस रण में थी कभी जीत की मुझे न इच्छा-आशा, खिंची भँवों का सिर्फ देखना था अनमोल तमाशा। आँख देखती रही सामने, पाँव मुझे ले भागे, धन्य हुआ मैं देख खूबसूरत दुश्मन को आगे। ठहरो तनिक और कुछ ठहरो, यों मत फिरो समर से अरी, जरा लेती जाओ जयमाल शत्रु के कर से। हार गया मैं, और अधिक अब फौज न नई बुलाओ, और मौन का यह घातक ब्रह्मास्त्र न सुमुखि! चलाओ।

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