मरण
लगी खेलने आग प्रकट हो थी विलीन जो तन में; मेरे ही मन के पाहुन आये मेरे आँगन में। बन्ध काट बोला यों धीरे मुक्ति-दूत जीवन का- ‘विहग, खोलकर पंख आज उड़ जा निर्बन्ध गगन में।’ पुण्य पर्व में आज सुहागिनि! निज सर्वस्व लुटा दे, माँग रहे मुँह खोल पिया कुछ प्रथम-प्रथम जीवन में। आज कहाँ की लाज बावली? खोल, चीर-पट तन से, रहे न टुक व्यवधन, नग्न घुल-मिल जा कनक-किरण में। देख रहा ज्यों स्वप्न बीज ऋतुपति का हिम के नीचे छिपी हुई गोतीत विभा त्यों कोलाहल-क्रन्दन में। उठी यवनिका आज तिमिर की, अंकुर उगा विभा का; चमक उठी वह पगडंडी जो प्रिय के गई भवन में। पूछ रहा था जिसकी सुधि वन्दी! अब तक उडुगण से, मुक्त घूमकर खोज उसे अब फूल-फैल त्रिभुवन में। ठौर-ठौर हैं मरण-सरोवर बने पिया के मग में, धोकर श्रान्ति, स्वस्थ हो पन्थी! लग जा पुनः लगन में।

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