कविता की पुकार
आज न उडु के नील-कुंज में स्वप्न खोजने जाऊँगी, आज चमेली में न चंद्र-किरणों से चित्र बनाऊँगी। अधरों में मुस्कान, न लाली बन कपोल में छाउँगी, कवि ! किस्मत पर भी न तुम्हारी आँसू बहाऊँगी। नालन्दा-वैशाली में तुम रुला चुके सौ बार, धूसर भुवन-स्वर्ग _ग्रामों_में कर पाई न विहार। आज यह राज-वाटिका छोड़, चलो कवि ! वनफूलों की ओर। चलो, जहाँ निर्जन कानन में वन्य कुसुम मुसकाते हैं, मलयानिल भूलता, भूलकर जिधर नहीं अलि जाते हैं। कितने दीप बुझे झाड़ी-झुरमुट में ज्योति पसार ? चले शून्य में सुरभि छोड़कर कितने कुसुम-कुमार ? कब्र पर मैं कवि ! रोऊँगी, जुगनू-आरती सँजाऊँगी। विद्युत छोड़ दीप साजूँगी, महल छोड़ तृण-कुटी-प्रवेश, तुम गाँवों के बनो भिखारी, मैं भिखारिणी का लूँ वेश। स्वर्णा चला अहा ! खेतों में उतरी संध्या श्याम परी, रोमन्थन करती गायें आ रहीं रौंदती घास हरी। घर-घर से उठ रहा धुआँ, जलते चूल्हे बारी-बारी, चौपालों में कृषक बैठ गाते "कहँ अटके बनवारी?" पनघट से आ रही पीतवासना युवती सुकुमार, किसी भाँति ढोती गागर-यौवन का दुर्वह भार। बनूँगी मैं कवि ! इसकी माँग, कलश, काजल, सिन्दूर, सुहाग। वन-तुलसी की गन्ध लिए हलकी पुरवैया आती है, मन्दिर की घंटा-ध्वनि युग-युग का सन्देश सुनाती है। टिमटिम दीपक के प्रकाश में पढ़ते निज पोथी शिशुगण, परदेशी की प्रिया बैठ गाती यह विरह-गीत उन्मन, "भैया ! लिख दे एक कलम खत मों बालम के जोग, चारों कोने खेम-कुसल माँझे ठाँ मोर वियोग।" दूतिका मैं बन जाऊँगी, सखी ! सुधि उन्हें सुनाऊँगी। पहन शुक्र का कर्णफूल है दिशा अभी भी मतवाली, रहते रात रमणियाँ आईं ले-ले फूलों की डाली। स्वर्ग-स्त्रोत, करुणा की धारा, भारत-माँ का पुण्य तरल, भक्ति-अश्रुधारा-सी निर्मल गंगा बहती है अविरल। लहर-लहर पर लहराते हैं मधुर प्रभाती-गान, भुवन स्वर्ग बन रहा, उड़े जाते ऊपर को प्राण, पुजारिन की बन कंठ-हिलोर, भिगो दूँगी अब-जग के छोर। कवि ! असाढ़ की इस रिमझिम में धनखेतों में जाने दो, कृषक-सुंदरी के स्वर में अटपटे गीत कुछ गाने दो। दुखियों के केवल उत्सव में इस दम पर्व मनाने दो, रोऊँगी खलिहानों में, खेतों में तो हर्षाने दो। मैं बच्चों के संग जरा खेलूँगी दूब-बिछौने पर, मचलूँगी मैं जरा इन्द्रधनु के रंगीन खिलौने पर। तितली के पीछे दौड़ूंगी, नाचूँगी दे-दे ताली, मैं मकई की सुरभी बनूँगी, पके आम-फल की लाली। वेणु-कुंज में जुगनू बन मैं इधर-उधर मुसकाऊँगी , हरसिंगार की कलियाँ बनकर वधुओं पर झड़ जाऊँगी। सूखी रोटी खायेगा जब कृषक खेत में धर कर हल, तब दूँगी मैं तृप्ति उसे बनकर लोटे का गंगाजल। उसके तन का दिव्य स्वेदकण बनकर गिरती जाऊँगी, और खेत में उन्हीं कणों-से मैं मोती उपजाऊँगी। शस्य-श्यामता निरख करेगा कृषक अधिक जब अभिलाषा, तब मैं उसके हृदय-स्त्रोत में उमड़ूंगी बनकर आशा। अर्धनग्न दम्पति के गृह में मैं झोंका बन आऊँगी, लज्जित हो न अतिथि-सम्मुख वे, दीपक तुरंत बुझाऊँगी। ऋण-शोधन के लिए दूध-घी बेच-बेच धन जोड़ेंगे, बूँद-बूँद बेचेंगे, अपने लिए नहीं कुछ छोड़ेंगे। शिशु मचलेंगे दूध देख, जननी उनको बहलायेंगी, मैं फाडूंगी हृदय, लाज से आँख नहीं रो पायेगी। इतने पर भी धन-पतियों की उनपर होगी मार, तब मैं बरसूँगी बन बेबस के आँसू सुकुमार। फटेगा भू का हृदय कठोर । चलो कवि ! वनफूलों की ओर।

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