ओ द्विधाग्रस्त शार्दूल! बोल
हिल रहा धरा का शीर्ण मूल, जल रहा दीप्त सारा खगोल, तू सोच रहा क्या अचल, मौन ? ओ द्विधाग्रस्त शार्दूल ! बोल ? जाग्रत जीवन की चरम-ज्योति लड़ रही सिन्धु के आरपार, संघर्ष-समर सब ओर, एक हिमगुहा-बीच घन-अन्धकार। प्लावन के खा दुर्जय प्रहार जब रहे सकल प्राचीर काँप, तब तू भीतर क्या सोच रहा है क्लीव-धर्म का पृष्ठ खोल? क्या पाप मोक्ष का भी प्रयास ओ द्विधाग्रस्त शार्दूल ! बोल ? बुझ गया जवलित पौरुष-प्रदीप? या टूट गये नख-रद कराल? या तू लख कर भयाभीत हुआ लपटें चारों दिशि लाल-लाल? दुर्लभ सुयोग, यह वह्निवाह धोने आया तेरा कलंक, विधि का यह नियत विधान तुझे लड़कर लेना है मुक्ति मोल। किस असमंजस में अचल मौन ओ द्विधाग्रस्त शार्दूल ! बोल ? संसार तुझे दे क्या प्रमाण? रक्खे सम्मुख किसका चरित्र? तेरे पूर्वज कह गये, "युद्ध चिर अनघ और शाश्वत पवित्र।" तप से खिंच आकर विजय पास है माँग रही बलिदान आज, "मैं उसे वरूँगी होम सके स्वागत में जो घन-प्राण आज।" ‘है दहन मुक्ति का मंत्र एक’, सुन, गूँज रहा सारा खगोल; तू सोच रहा क्या अचल मौन ओ द्विधाग्रस्त शार्दूल ! बोल ? नख-दंत देख मत हृदय हार, गृह-भेद देख मत हो अधीर; अन्तर की अतुल उमंग देख, देखे, अपनी ज़ंजीर वीर ! यह पवन परम अनुकूल देख, रे, देख भुजा का बल अथाह, तू चले बेड़ियाँ तोड़ कहीं, रोकेगा आकर कौन राह ? डगमग धरणी पर दमित तेज सागर पारे-सा उठे डोल; उठ, जाग, समय अब शेष नहीं, भारत माँ के शार्दुल! बोल।

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