नई आवाज
कभी की जा चुकीं नीचे यहाँ की वेदनाएँ, नए स्वर के लिए तू क्या गगन को छानता है ? बताएँ भेद क्या तारे ? उन्हें कुछ ज्ञात भी हो, कहे क्या चाँद ? उसके पास कोई बात भी हो। निशानी तो घटा पर है, मगर, किसके चरण की ? यहाँ पर भी नहीं यह राज़ कोई जानता है। सनातन है, अचल है, स्वर्ग चलता ही नहीं है; तृषा की आग में पड़कर पिघलता ही नहीं है। मजे मालूम ही जिसको नहीं बेताबियों के, नई आवाज की दुनिया उसे क्यों मानता है ? धुओं का देश है नादान ! यह छलना बड़ी है, नई अनुभूतियों की खान वह नीचे पड़ी है। मुसीबत से बिंधी जो जिन्दगी, रौशन हुई वह, किरण को ढूँढता लेकिन, नहीं पहचानता है। गगन में तो नहीं बाकी, जरा कुछ है असल में, नए स्वर का भरा है कोष पर, अब तक अतल में। कढ़ेगी तोड़कर कारा अभी धारा सुधा की, शरासन को श्रवण तक तू नहीं क्यों तानता है ? नया स्वर खोजनेवाले ! तलातल तोड़ता जा, कदम जिस पर पड़े तेरे, सतह वह छोड़ते जा; नई झंकार की दुनिया खत्म होती कहाँ पर ? वही कुछ जानता, सीमा नहीं जो मानता है। वहाँ क्या है कि फव्वारे जहाँ से छूटते हैं, जरा-सी नम हुई मिट्टी कि अंकुर फूटते हैं ? बरसता जो गगन से वह जमा होता मही में, उतरने को अतल में क्यों नहीं हठ ठानता है ? हृदय-जल में सिमट कर डूब, इसकी थाह तो ले, रसों के ताल में नीचे उतर अवगाह तो ले। सरोवर छोड़ कर तू बूँद पीने की खुशी में, गगन के फूल पर शायक वृथा संधानता है।

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