सावन में
जेठ नहीं, यह जलन हृदय की, उठकर जरा देख तो ले; जगती में सावन आया है, मायाविन! सपने धो ले। जलना तो था बदा भाग्य में कविते! बारह मास तुझे; आज विश्व की हरियाली पी कुछ तो प्रिये, हरी हो ले। नन्दन आन बसा मरु में, घन के आँसू वरदान हुए; अब तो रोना पाप नहीं, पावस में सखि! जी भर रो ले। अपनी बात कहूँ क्या! मेरी भाग्य-लीक प्रतिकूल हुई; हरियाली को देख आज फिर हरे हुए दिल के फोले। सुन्दरि! ज्ञात किसे, अन्तर का उच्छल-सिन्धु विशाल बँधा? कौन जानता तड़प रहे किस भाँति प्राण मेरे भोले! सौदा कितना कठिन सुहागिनि! जो तुझ से गँठ-बन्ध करे; अंचल पकड़ रहे वह तेरा, संग-संग वन-वन डोले। हाँ, सच है, छाया सुरूर तो मोह और ममता कैसी? मरना हो तो पिये प्रेम-रस, जिये अगर बाउर हो ले।

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