प्रतिकूल
है बीत रहा विपरीत ग्रहों का लग्न - याम; मेरे उन्मादक भाव, आज तुम लो विराम। उन्नत सिर पर जब तक हो शम्पा का प्रहार, सोओ तब तक जाज्वल्यमान मेरे विचार। तब भी आशा मत मरे, करे पीयूष-पान; वह जिये सोच, मेरा प्रयास कितना महान। द्रुम अचल, पवन ले जाय उड़ा पत्ती - पराग; बुझती है केवल शिखा, कभी बुझती न आग। मेरे मन हो आश्वस्त सोचकर एक बात, इच्छा मैं भी उसकी, जिसका यह शम्ब - पात। साखी है सारा व्योम, अयाचित मिले गान; मैंने न ईष्ट से कहा, करो कवि - सत्व दान। उसकी इच्छा थी, उठा गूँज गर्जन गभीर, मैं धूमकेतु - सा उगा तिमिर का हृदय चीर। मृत्तिका - तिलक ले कर प्रभु का आदेश मान, मैंने अम्बर को छोड़ धरा का किया गान। मानव की पूजा की मैंने सुर के समक्ष, नर की महिमा का लिखा पृष्ठ नूतन, वलक्ष। हतपुण्य अनघ, जन पतित-पूत, लघु - महीयान, मानव कह, अन्तर खोल मिला सबसे समान। समता के शत प्रत्यूह देख अतिशय अधीर, सच है, मैंने छोड़े अनेक विष - बुझे तीर। वे तीर कि जिनसे विद्ध दिशाएँ उठीं जाग, भू की छाती में लगी खौलने सुप्त आग। मैंने न सुयश की भीख माँगते किया गान, थी चाह कि मेरा स्वप्न कभी हो मूर्त्तिमान। स्वर का पथ पा चल पड़ा स्वयं मन का प्रदाह, चुन ली जीवन ने स्वयं गीत की प्रगुण राह। इच्छा प्रभु की मुझमें आ बोली बार - बार, दिव को कंचन - सा गला करो भू का सिंगार। वाणी, पर, अब तक विफल मुझे दे रही खेद, टकराकर भी सकती न वज्र का हृदय भेद। जिनके हित मैंने कण्ठ फाड़कर किया नाद, माधुरी जली मेरी, न जला उनका प्रमाद। आखिर क्लीवों की देख धीरता गई छूट, धरती पर मैंने छिड़क दिया विष कालकूट। पर, सुनकर भी जग ने न सुनी प्रभु की पुकार, समझा कि बोलता था मेरा कटु अहंकार। हा, अहंकार! ब्रह्माण्ड - बीच अणु एक खर्व, ऐसा क्या तत्व स्वकीय जिसे ले करूँ गर्व? मैं रिक्त-हृदय बंसी, फूँकें तो उठे हूक, दें अधर छुड़ा देवता कहीं तो रहूँ मूक। जानें करना होगा कब तक यह तप कराल! चलना होगा कब तक दुरध्व पर हॄदय वाल! बन सेतु पड़ा रहना होगा छू युग्म देश, कर सके इष्ट जिस पर चढ़ नवयुग में प्रवेश! सुन रे मन, अस्फुट-सा कहता क्या महाकाश? जलता है कोई द्रव्य, तभी खिलता प्रकाश! तप से जीवन का जन्म, इसे तप रहा पाल, है टिकी तपस्या पर विधि की रचना विशाल। तप से प्रदीप्त मार्तण्ड, चन्द्र शीतल मनोज्ञ, तप से स्थित उडु नभ में ले आसन यथा-योग्य। सागर में तप परिणाह, सरित में खर प्रवाह, घन में जीवन, गिरि में नूतन प्रस्रवण-चाह। द्रुम के जीवन में सुमन, सुमन में तप सुगन्ध; तृण में हरीतिमा, व्याप्ति महा नभ में विबन्ध। नर में तप पौरुष-शिखा, शौर्य का हेम-हास, नारी में अर्जित पुराचीन तप का प्रकाश। जग के विकास-क्रम में जो जितना महीयान, है उसका तप उतना चिरायु, उतना महान। मानव का पद सर्वोच्च, अतः, तप भी कठोर, अपनी पीड़ा का कभी उसे मिलता न छोर। रे पथिक! मुदित मन झेल, मिलें जो अन्तराय, जलने दे मन का बोझ, नहीं कोई उपाय।

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