ओ अशेष! निःशेष बीन का एक तार था मैं ही
ओ अशेष! निःशेष बीन का एक तार था मैं ही! स्वर्भू की सम्मिलित गिरा का एक द्वार था मैं ही! तब क्यों बाँध रखा कारा में? कूद अभय उत्तुंग शृंग से बहने दिया नहीं धारा में। लहरों की खा चोट गरजता; कभी शिलाओं से टकराकर अहंकार प्राणों का बजता। चट्टानों के मर्म-देश पर बजता नाद तुम्हारा; जनाकीर्ण संसार श्रवण करता संवाद तुम्हारा। भूल गये आग्नेय! तुम्हारा अहंकार था मैं ही, स्वर्भू की सम्मिलित गिरा का एक द्वार था मैं ही। ओ अशेष! निःशेष बीन का एक तार था मैं ही! स्वर्भू की सम्मिलित गिरा का एक द्वार था मैं ही! तब क्यों दह्यमान यह जीवन चढ़ न सका मन्दिर में अबतक बन सहस्र वर्त्तिक नीराजन, देख रहा मैं वेदि तुम्हारी, कुछ टिमटिम, कुछ-कुछ अंधियारी। और इधर निर्जन अरण्य में उद्भासित हो रहीं दिशाएँ; जीवन दीप्त जला जाता है; ये देखो निर्धूम शिखाएँ। मुझ में जो मर रही, जगत में कहाँ भारती वैसी? जो अवमानित शिखा, किसी की कहाँ आरती वैसी? भूल गये देवता, कि यज्ञिय गन्धसार था मैं ही, स्वर्भू की सम्मिलित गिरा का एक द्वार था मैं ही। ओ अशेष! निःशेष बीन का एक तार था मैं ही! स्वर्भू की सम्मिलित गिरा का एक द्वार था मैं ही! तब क्यों इस जम्बाल-जाल में मुझे फेंक मुस्काते हो तुम? मैं क्या हँसता नहीं देवता, पूजा का बन सुमन थाल में? मेरी प्रखर मरीचि देखती उठा सान्द्र तम का अवगुण्ठन; देती खोल अदृष्ट-ग्रन्थि, संसृति का गूढ़ रहस्य पुरातन। थकी बुद्धि को पीछे तजकर मैं श्रद्धा का दीप जलाता, बहुत दूर चलकर धरती के हित पीयूष-कलश ले आता; लाता वे स्वर जो कि शब्दगुण अम्बर के उर में हैं संचित; गाता वे संदेश कि जिन से स्वर्ग-मर्त्य, दोनों, हैं वंचित। कर में उज्ज्वल शंख, स्कन्ध पर, लिये तुम्हारी विजय-पताका, अमृत-कलश-वाही धरणी का, दूत तुम्हारी अमर विभा का। चलता मैं फेंकते मलीमस पापों पर चिनगारी, सुन उद्वोधन-नाद नींद से जग उठते नर-नारी। भूल गये देवता, उदय का महोच्चार था मैं ही, स्वर्भू की सम्मिलित गिरा का एक द्वार था मैं ही!

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