प्रभाती
रे प्रवासी, जाग , तेरे देश का संवाद आया। भेदमय संदेश सुन पुलकित खगों ने चंचु खोली; प्रेम से झुक-झुक प्रणति में पादपों की पंक्ति डोली; दूर प्राची की तटी से विश्व के तृण-तृण जगाता; फिर उदय की वायु का वन में सुपरिचित नाद आया। रे प्रवासी, जाग , तेरे देश का संवाद आया। व्योम-सर में हो उठा विकसित अरुण आलोक-शतदल; चिर-दुखी धरणी विभा में हो रही आनन्द-विह्वल। चूमकर प्रति रोम से सिर पर चढ़ा वरदान प्रभु का, रश्मि-अंजलि में पिता का स्नेह-आशीर्वाद आया। रे प्रवासी, जाग , तेरे देश का संवाद आया। सिन्धु-तट का आर्य भावुक आज जग मेरे हृदय में, खोजता उद्गम विभा का दीप्त-मुख विस्मित उदय में; उग रहा जिस क्षितिज-रेखा से अरुण, उसके परे क्या? एक भूला देश धूमिल- सा मुझे क्यों याद आया? रे प्रवासी, जाग , तेरे देश का संवाद आया।

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