दिल्ली फूलों में बसी, ओस-कण से भीगी, दिल्ली सुहाग है, सुषमा है, रंगीनी है, प्रेमिका-कंठ में पड़ी मालती की माला, दिल्ली सपनों की सेज मधुर रस-भीनी है। बस, जिधर उठाओ दृष्टि, उधर रेशम केवल, रेशम पर से क्षण भर को आंख न हटती है, सच कहा एक भाई ने, दिल्ली में तन पर रेशम से रुखड़ी चीज न कोई सटती है।...
विश्व-विभव की अमर वेलि पर फूलों-सा खिलना तेरा। शक्ति-यान पर चढ़कर वह उन्नति-रवि से मिलना तेरा। ...
हे वीर बन्धु ! दायी है कौन विपद का ? हम दोषी किसको कहें तुम्हारे वध का ? यह गहन प्रश्न; कैसे रहस्य समझायें ? दस-बीस अधिक हों तो हम नाम गिनायें।...
किरिचों पर कोई नया स्वप्न ढोते हो ? किस नयी फसल के बीज वीर ! बोते हो ? दुर्दान्त दस्यु को सेल हूलते हैं हम; यम की दंष्ट्रा से खेल झूलते हैं हम।...
गरदन पर किसका पाप वीर ! ढोते हो ? शोणित से तुम किसका कलंक धोते हो ? उनका, जिनमें कारुण्य असीम तरल था, तारुण्य-ताप था नहीं, न रंच गरल था;...
हर ज़िन्दगी कहीं न कहीं दूसरी ज़िन्दगी से टकराती है। हर ज़िन्दगी किसी न किसी ज़िन्दगी से मिल कर एक हो जाती है ।...
घेरे था मुझे तुम्हारी साँसों का पवन, जब मैं बालक अबोध अनजान था। यह पवन तुम्हारी साँस का सौरभ लाता था।...
जाग रहे हम वीर जवान, जियो जियो अय हिन्दुस्तान ! हम प्रभात की नई किरण हैं, हम दिन के आलोक नवल, हम नवीन भारत के सैनिक, धीर,वीर,गंभीर, अचल।...
हाय ! विभव के उस पद में नियति-भीषिका की मुसकान जान न सकी भोग में भूली- सी तेरी प्यारी सन्तान। ...
निर्मम नाता तोड़ जगत का अमरपुरी की ओर चले, बन्धन-मुक्ति न हुई, जननि की गोद मधुरतम छोड़ चले। जलता नन्दन-वन पुकारता, मधुप! कहाँ मुँह मोड़ चले? बिलख रही यशुदा, माधव! क्यों मुरली मंजु मरोड़ चले?...
है बहुत बरसी धरित्री पर अमृत की धार; पर नहीं अब तक सुशीतल हो सका संसार। भोग लिप्सा आज भी लहरा रही उद्दाम; बह रही असहाय नर कि भावना निष्काम।...
तुम्हें मैं दोष नहीं देता हूँ। सारा कसूर अपने सिर पर लेता हूँ। यह मेरा ही कसूर था कि सूर्य के घोड़ों से होड़ लेने को ...
एक पढ़क्कू बड़े तेज थे, तर्कशास्त्र पढ़ते थे, जहाँ न कोई बात, वहाँ भी नए बात गढ़ते थे। एक रोज़ वे पड़े फिक्र में समझ नहीं कुछ न पाए, "बैल घुमता है कोल्हू में कैसे बिना चलाए?"...
सीखे नित नूतन ज्ञान,नई परिभाषाएं, जब आग लगे,गहरी समाधि में रम जाओ; या सिर के बल हो खडे परिक्रमा में घूमो। ढब और कौन हैं चतुर बुद्धि-बाजीगर के?...
यह कैसी चांदनी अम के मलिन तमिर की इस गगन में, कूक रही क्यों नियति व्यंग से इस गोधूलि-लगन में? मरघट में तू साज रही दिल्ली कैसे श्रृंगार? यह बहार का स्वांग अरी इस उजड़े चमन में!...
वैराग्य छोड़ बाँहों की विभा संभालो चट्टानों की छाती से दूध निकालो है रुकी जहाँ भी धार शिलाएं तोड़ो पीयूष चन्द्रमाओं का पकड़ निचोड़ो ...
प्रश्न आधुनिकता की बही पर नाम अब भी तो चढ़ा दो, नायलन का कोट हम सिलवा चुके हैं; और जड़ से नोचकर बेली-चमेली के द्रुमों को...
सलिल कण हूँ, या पारावार हूँ मैं स्वयं छाया, स्वयं आधार हूँ मैं सच् है, विपत्ति जब आती है, कायर को ही दहलाती है, ...
राम, तुम्हारा नाम कंठ में रहे, हृदय, जो कुछ भेजो, वह सहे, दुख से त्राण नहीं माँगूँ। माँगू केवल शक्ति दुख सहने की, ...
मैं शिशिर-शीर्णा चली, अब जाग ओ मधुमासवाली ! खोल दृग, मधु नींद तज, तंद्रालसे, रूपसि विजन की ! साज नव शृंगार, मधु-घट संग ले, कर सुधि भुवन की । विश्व में तृण-तृण जगी है आज मधु की प्यास आली !...
शुभ्र नभ निर्मेघ, सज्जन सत्यवादी, ईश के ये अप्रतिम वरदान हैं। यदि अयोग्य है तो फिर मत वह काम करो, यदि असत्य है तो वह बात नहीं बोलो।...
घटा फाड़ कर जगमगाता हुआ आ गया देख, ज्वाला का बान; खड़ा हो, जवानी का झंडा उड़ा, ओ मेरे देश के नौजवान!...
क्वाँरा कहते उसे, पुरुष जो मेले में जाता तो है, मूल्य पूछता फिरता, लेकिन, कुछ भी मोल नहीं लेता।...
नाचो, हे नाचो, नटवर ! चन्द्रचूड़ ! त्रिनयन ! गंगाधर ! आदि-प्रलय ! अवढर ! शंकर! नाचो, हे नाचो, नटवर ! आदि लास, अविगत, अनादि स्वन, ...
किरणों की यह वृष्टि! दीन पर दया करो, धरो, धरो, करुणामय! मेरी बाँह धरो। कोने का मैं एक कुसुम पीला-पीला, छाया से मेरा तन गीला, मन गीला।...
तरु से तरु तक रज्जु बाँध कर, वातायन से वातायन तक बाँध कुसुम के हार, उडु से उडु तक कुमुदबन्धु की रश्मि तानकर आँखों से आँखों तक फैला कर रेशम के तार;...
प्रात जगाता शिशु-वसन्त को नव गुलाब दे-दे ताली। तितली बनी देव की कविता वन-वन उड़ती मतवाली। सुन्दरता को जगी देखकर, जी करता मैं भी कुछ गाऊॅं;...
बढ़ गया है दूर तक विज्ञान, बढ़ गयी है शक्ति यातायात की। किन्तु, क्या गन्तव्य कोई स्थान है बढ़ा सारे जगत में एक भी?...
लोगे कोई भगवान? टके में दो दूँगा। लोगे कोई भगवान? बड़ा अलबेला है। साधना-फकीरी नहीं, खूब खाओ, पूजो, भगवान नहीं, असली सोने का ढेला है।...
प्रीति न और्ण साँझ के घन सखि! पल-भर चमक बिखर जाते जो मना कनक-गोधूलि-लगन सखि! प्रीति नील, गंभीर गगन सखि!...