दिल्ली(कविता)
यह कैसी चांदनी अम के मलिन तमिर की इस गगन में, कूक रही क्यों नियति व्यंग से इस गोधूलि-लगन में? मरघट में तू साज रही दिल्ली कैसे श्रृंगार? यह बहार का स्वांग अरी इस उजड़े चमन में! इस उजाड़ निर्जन खंडहर में, छिन्न-भिन्न उजड़े इस घर में तुझे रूप सजाने की सूझी,इस सत्यानाश प्रहर में! डाल-डाल पर छेड़ रही कोयल मर्सिया - तराना, और तुझे सूझा इस दम ही उत्सव हाय, मनाना. हम धोते हैं घाव इधर सतलज के शीतल जल से, उधर तुझे भाता है इन पर नमक हाय, छिड़कना! महल कहां बस, हमें सहारा,केवल फूस-फास, तॄणदल का; अन्न नहीं, अवलम्ब प्राण का, गम, आँसू या गंगाजल का.

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