जागरण
मैं शिशिर-शीर्णा चली, अब जाग ओ मधुमासवाली ! खोल दृग, मधु नींद तज, तंद्रालसे, रूपसि विजन की ! साज नव शृंगार, मधु-घट संग ले, कर सुधि भुवन की । विश्व में तृण-तृण जगी है आज मधु की प्यास आली ! मैं शिशिर-शीर्णा चली, अब जाग ओ मधुमासवाली ! वर्ष की कविता सुनाने खोजते पिक मौन बोले, स्पर्श कर द्रुत बौरने को आम्र आकुल बाँह खोले; पंथ में कोरकवती जूही खड़ी ले नम्र डाली। मैं शिशिर-शीर्णा चली, अब जाग ओ मधुमासवाली ! लौट जाता गंध वह सौरभ बिना फिर-फिर मलय को, पुष्पशर चिन्तित खड़ा संसार के उर की विजय को । मौन खग विस्मित- ‘कहाँ अटकी मधुर उल्लासवाली ?’ मैं शिशिर-शीर्णा चली, अब जाग ओ मधुमासवाली ! मुक्त करने को विकल है लाज की मधु-प्रीति कारा; विश्व-यौवन की शिरा में नाचने को रक्तधारा। चाहती छाना दृगों में आज तज कर गाल लाली। मैं शिशिर-शीर्णा चली, अब जाग ओ मधुमासवाली ! है विकल उल्लास वसुधा के हृदय से फूटने को, प्रात-अंचल-ग्रंथि से नव रश्मि चंचल छूटने को । भृंग मधु पीने खड़े उद्यत लिये कर रिक्त प्याली । मैं शिशिर-शीर्णा चली, अब जाग ओ मधुमासवाली ! इंद्र की धनुषी बनी तितली पवन में डोलती है; अप्सराएँ भूमि के हित पंख-पट निज खोलती है । आज बन साकार छाने उमड़ते कवि-स्वप्न आली ! मैं शिशिर-शीर्णा चली, अब जाग ओ मधुमासवाली !

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