आश्वासन
तृषित! धर धीर मरु में। कि जलती भूमि के उर में कहीं प्रच्छन्न जल हो। न रो यदि आज तरु में सुमन की गन्ध तीखी, स्यात, कल मधुपूर्ण फल हो। नए पल्लव सजीले, खिले थे जो वनश्री को मसृण परिधान देकर; हुए वे आज पीले, प्रभंजन भी पधारा कुछ नया वरदान लेकर। दुखों की चोट खाकर हृदय जो कूप-सा जितना अधिक गंभीर होगा; उसी में वृष्टि पा कर कभी उतना अधिक संचित सुखों का नीर होगा। सुधा यह तो विपिन की, गरजती निर्झरी जो आ रही पर्वत-शिखर से। वृथा यह भीति घन की, दया-घन का कहीं तुझ पर शुभाशीर्वाद बरसे। करें क्या बात उसकी कड़क उठता कभी जो व्योम में अभिमान बनकर? कृपा पर, ज्ञात उसकी, उतरता वृष्टि में जो सृष्टि का कल्याण बनकर। सदा आनन्द लूटें, पुलक-कलिका चढ़ा या अश्रु से पद-पद्म धोकर; तुम्हारे बाण छूटे, झुके हैं हम तुम्हारे हाथ में कोदण्ड होकर।

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