पर्वतारोही
मैं पर्वतारोही हूँ। शिखर अभी दूर है। और मेरी साँस फूलनें लगी है। मुड़ कर देखता हूँ कि मैनें जो निशान बनाये थे, वे हैं या नहीं। मैंने जो बीज गिराये थे, उनका क्या हुआ? किसान बीजों को मिट्टी में गाड़ कर घर जा कर सुख से सोता है, इस आशा में कि वे उगेंगे और पौधे लहरायेंगे। उनमें जब दानें भरेंगे, पक्षी उत्सव मनानें को आयेंगे। लेकिन कवि की किस्मत इतनी अच्छी नहीं होती। वह अपनें भविष्य को आप नहीं पहचानता। हृदय के दानें तो उसनें बिखेर दिये हैं, मगर फसल उगेगी या नहीं यह रहस्य वह नहीं जानता।

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