वसन्त के नाम पर
प्रात जगाता शिशु-वसन्त को नव गुलाब दे-दे ताली। तितली बनी देव की कविता वन-वन उड़ती मतवाली। सुन्दरता को जगी देखकर, जी करता मैं भी कुछ गाऊॅं; मैं भी आज प्रकृति-पूजन में, निज कविता के दीप जलाऊॅं। ठोकर मार भाग्य को फोडूँ जड़ जीवन तज कर उड़ जाऊॅं; उतरी कभी न भू पर जो छवि, जग को उसका रूप दिखाऊॅं। स्वप्न-बीच जो कुछ सुन्दर हो उसे सत्य में व्याप्त करूँ। और सत्य तनु के कुत्सित मल का अस्तित्व समाप्त करूँ। कलम उठी कविता लिखने को, अन्तस्तल में ज्वार उठा रे! सहसा नाम पकड़ कायर का पश्चिम पवन पुकार उठा रे! देखा, शून्य कुँवर का गढ़ है, झॉंसी की वह शान नहीं है; दुर्गादास - प्रताप बली का, प्यारा राजस्थान नहीं है। जलती नहीं चिता जौहर की, मुटठी में बलिदान नहीं है; टेढ़ी मूँछ लिये रण - वन, फिरना अब तो आसान नहीं है। समय माँगता मूल्य मुक्ति का, देगा कौन मांस की बोटी? पर्वत पर आदर्श मिलेगा, खायें, चलो घास की रोटी। चढ़े अश्व पर सेंक रहे रोटी नीचे कर भालों को, खोज रहा मेवाड़ आज फिर उन अल्हड़ मतवालों को। बात-बात पर बजीं किरीचें, जूझ मरे क्षत्रिय खेतों में, जौहर की जलती चिनगारी अब भी चमक रही रेतों में। जाग-जाग ओ थार, बता दे कण-कण चमक रहा क्यों तेरा? बता रंच भर ठौर कहाँ वह, जिस पर शोणित बहा न मेरा? पी-पी खून आग बढ़ती थी, सदियों जली होम की ज्वाला; हॅंस-हॅंस चढ़े सीस, आहुति में बलिदानों का हुआ उजाला। सुन्दरियों को सौंप अग्नि पर निकले समय-पुकारों पर, बाल, वृद्ध औ तरुण विहॅंसते खेल गए तलवारों पर। हाँ, वसन्त की सरस घड़ी है, जी करता मैं भी कुछ गाऊॅं; कवि हूँ, आज प्रकृति-पूजन में निज कविता के दीप जलाऊॅं। क्या गाऊॅं? सतलज रोती है, हाय! खिलीं बेलियाँ किनारे। भूल गए ऋतुपति, बहते हैं, यहाँ रुधिर के दिव्य पनारे। बहनें चीख रहीं रावी-तट, बिलख रहे बच्चे मतवारे; फूल-फूल से पूछ रहे हैं, कब लौटेंगे पिता हमारे? उफ? वसन्त या मदन-बाण है? वन-वन रूप-ज्वार आया है। सिहर रही वसुधा रह-रह कर, यौवन में उभार आया है। कसक रही सुन्दरी-आज मधु-ऋतु में मेरे कन्त कहाँ? दूर द्वीप में प्रतिध्वनि उठती-प्यारी, और वसन्त कहाँ?

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