संपाती
तुम्हें मैं दोष नहीं देता हूँ। सारा कसूर अपने सिर पर लेता हूँ। यह मेरा ही कसूर था कि सूर्य के घोड़ों से होड़ लेने को मैं आकाश में उड़ा। जटायु मुझ से ज्यादा होशियार निकला वह आधे रास्तें में ही लौट आया। लेकिन मैं अपने अहंकार में उड़ता ही गया और जैसे ही सूर्य के पास पहुँचा, मेरे पंख जल गये। मैंने पानी माँगा। पर दूर आकाश में पानी कौन देता है  ? सूर्य के मारे हुए को अपनी शरण में कौन लेता है ? अब तो सब छोड़कर तुम्हारे चरणों पर पड़ा हूँ। मन्दिर के बाहर पड़े पौधर के समान तुम्हारे आँगन में धरा हूँ। तुम्हें मैं कोई दोष नहीं देता स्वामी ! ‘‘आमि आपन दोषे दुख पाइ वासना-अनुगामी।’’

Read Next