शोक की संतान
हृदय छोटा हो, तो शोक वहां नहीं समाएगा। और दर्द दस्तक दिये बिना दरवाजे से लौट जाएगा। टीस उसे उठती है, जिसका भाग्य खुलता है। वेदना गोद में उठाकर सबको निहाल नहीं करती, जिसका पुण्य प्रबल होता है, वह अपने आसुओं से धुलता है। तुम तो नदी की धारा के साथ दौड़ रहे हो। उस सुख को कैसे समझोगे, जो हमें नदी को देखकर मिलता है। और वह फूल तुम्हें कैसे दिखाई देगा, जो हमारी झिलमिल अंधियाली में खिलता है? हम तुम्हारे लिये महल बनाते हैं तुम हमारी कुटिया को देखकर जलते हो। युगों से हमारा तुम्हारा यही संबंध रहा है। हम रास्ते में फूल बिछाते हैं तुम उन्हें मसलते हुए चलते हो। दुनिया में चाहे जो भी निजाम आए, तुम पानी की बाढ़ में से सुखों को छान लोगे। चाहे हिटलर ही आसन पर क्यों न बैठ जाए, तुम उसे अपना आराध्य मान लोगे। मगर हम? तुम जी रहे हो, हम जीने की इच्छा को तोल रहे हैं। आयु तेजी से भागी जाती है और हम अंधेरे में जीवन का अर्थ टटोल रहे हैं। असल में हम कवि नहीं, शोक की संतान हैं। हम गीत नहीं बनाते, पंक्तियों में वेदना के शिशुओं को जनते हैं। झरने का कलकल, पत्तों का मर्मर और फूलों की गुपचुप आवाज़, ये गरीब की आह से बनते हैं।

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