प्रीति
प्रीति न और्ण साँझ के घन सखि! पल-भर चमक बिखर जाते जो मना कनक-गोधूलि-लगन सखि! प्रीति नील, गंभीर गगन सखि! चूम रहा जो विनत धरणि को निज सुख में नित मूक-मगन सखि! प्रीति न पूर्ण चन्द्र जगमग सखि! जो होता नित क्षीण, एक दिन विभा-सिक्त करके अग-जग सखि! दूज-कला यह लघु नभ-नग सखि! शीत, स्निग्ध,नव रश्मि छिड़कती बढ़ती ही जाती पग-पग सखि! मन की बात न श्रुति से कह सखि! बोले प्रेम विकल होता है, अनबोले सारा दुख सह सखि! कितना प्यार? जान मत यह सखि! सीमा, बन्ध, मृत्यु से आगे बसती कहीं प्रीति अहरह सखि! तृणवत धधक-धधक मत जल सखि! ओदी आँच धुनी बिरहिन की, नहीं लपट कि चहल-पहल सखि! अन्तर्दाह मधुर मंगल सखि! प्रीति-स्वाद कुछ ज्ञात उसे, जो सुलग रहा तिल-तिल, पल-पल सखि!

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