भारत का यह रेशमी नगर
दिल्ली फूलों में बसी, ओस-कण से भीगी, दिल्ली सुहाग है, सुषमा है, रंगीनी है, प्रेमिका-कंठ में पड़ी मालती की माला, दिल्ली सपनों की सेज मधुर रस-भीनी है। बस, जिधर उठाओ दृष्टि, उधर रेशम केवल, रेशम पर से क्षण भर को आंख न हटती है, सच कहा एक भाई ने, दिल्ली में तन पर रेशम से रुखड़ी चीज न कोई सटती है। हो भी क्यों नहीं? कि दिल्ली के भीतर जाने, युग से कितनी सिदि्धयां समायी हैं। औ` सबका पहुंचा काल तभी जब से उन की आंखें रेशम पर बहुत अधिक ललचायी हैं। रेशम से कोमल तार, क्लांतियों के धागे, हैं बंधे उन्हीं से अंग यहां आजादी के, दिल्ली वाले गा रहे बैठ निश्चिंत मगन रेशमी महल में गीत खुरदुरी खादी के। वेतनभोगिनी, विलासमयी यह देवपुरी, ऊंघती कल्पनाओं से जिस का नाता है, जिसको इसकी चिन्ता का भी अवकाश नहीं, खाते हैं जो वह अन्न कौन उपजाता है। उद्यानों का यह नगर कहीं भी जा देखो, इसमें कुम्हार का चाक न कोई चलता है, मजदूर मिलें पर, मिलता कहीं किसान नहीं, फूलते फूल, पर, मक्का कहीं न फलता है। क्या ताना है मोहक वितान मायापुर का, बस, फूल-फूल, रेशम-रेशम फैलाया है, लगता है, कोई स्वर्ग खमंडल से उड़कर, मदिरा में माता हुआ भूमि पर आया है। ये, जो फूलों के चीरों में चमचमा रहीं, मधुमुखी इन्द्रजाया की सहचरियां होंगी, ये, जो यौवन की धूम मचाये फिरती हैं, भूतल पर भटकी हुई इन्द्रपरियां होंगी। उभरे गुलाब से घटकर कोई फूल नहीं, नीचे कोई सौंदर्य न कसी जवानी से, दिल्ली की सुषमाओं का कौन बखान करे? कम नहीं कड़ी कोई भी स्वप्न कहानी से। गंदगी, गरीबी, मैलेपन को दूर रखो, शुद्धोदन के पहरेवाले चिल्लाते हैं, है कपिलवस्तु पर फूलों का शृंगार पड़ा, रथ-समारूढ़ सिद्धार्थ घूमने जाते हैं। सिद्धार्थ देख रम्यता रोज ही फिर आते, मन में कुत्सा का भाव नहीं, पर, जगता है, समझाये उनको कौन, नहीं भारत वैसा दिल्ली के दर्पण में जैसा वह लगता है। भारत धूलों से भरा, आंसुओं से गीला, भारत अब भी व्याकुल विपत्ति के घेरे में। दिल्ली में तो है खूब ज्योति की चहल-पहल, पर, भटक रहा है सारा देश अँधेरे में। रेशमी कलम से भाग्य-लेख लिखनेवालों, तुम भी अभाव से कभी ग्रस्त हो रोये हो? बीमार किसी बच्चे की दवा जुटाने में, तुम भी क्या घर भर पेट बांधकर सोये हो? असहाय किसानों की किस्मत को खेतों में, कया जल मे बह जाते देखा है? क्या खाएंगे? यह सोच निराशा से पागल, बेचारों को नीरव रह जाते देखा है? देखा है ग्रामों की अनेक रम्भाओं को, जिन की आभा पर धूल अभी तक छायी है? रेशमी देह पर जिन अभागिनों की अब तक रेशम क्या? साड़ी सही नहीं चढ़ पायी है। पर तुम नगरों के लाल, अमीरों के पुतले, क्यों व्यथा भाग्यहीनों की मन में लाओगे? जलता हो सारा देश, किन्तु, होकर अधीर तुम दौड़-दौड़कर क्यों यह आग बुझाओगे? चिन्ता हो भी क्यों तुम्हें, गांव के जलने से, दिल्ली में तो रोटियां नहीं कम होती हैं। धुलता न अश्रु-बुंदों से आंखों से काजल, गालों पर की धूलियां नहीं नम होती हैं। जलते हैं तो ये गांव देश के जला करें, आराम नयी दिल्ली अपना कब छोड़ेगी? या रक्खेगी मरघट में भी रेशमी महल, या आंधी की खाकर चपेट सब छोड़ेगी। चल रहे ग्राम-कुंजों में पछिया के झकोर, दिल्ली, लेकिन, ले रही लहर पुरवाई में। है विकल देश सारा अभाव के तापों से, दिल्ली सुख से सोयी है नरम रजाई में। क्या कुटिल व्यंग्य! दीनता वेदना से अधीर, आशा से जिनका नाम रात-दिन जपती है, दिल्ली के वे देवता रोज कहते जाते, `कुछ और धरो धीरज, किस्मत अब छपती है।´ किस्मतें रोज छप रहीं, मगर जलधार कहां? प्यासी हरियाली सूख रही है खेतों में, निर्धन का धन पी रहे लोभ के प्रेत छिपे, पानी विलीन होता जाता है रेतों में। हिल रहा देश कुत्सा के जिन आघातों से, वे नाद तुम्हें ही नहीं सुनाई पड़ते हैं? निर्माणों के प्रहरियों! तुम्हें ही चोरों के काले चेहरे क्या नहीं दिखाई पड़ते हैं? तो होश करो, दिल्ली के देवो, होश करो, सब दिन तो यह मोहिनी न चलनेवाली है, होती जाती है गर्म दिशाओं की सांसें, मिट्टी फिर कोई आग उगलनेवाली है। हों रहीं खड़ी सेनाएं फिर काली-काली मेंघों-से उभरे हुए नये गजराजों की, फिर नये गरुड़ उड़ने को पांखें तोल रहे, फिर झपट झेलनी होगी नूतन बाजों की। वृद्धता भले बंध रहे रेशमी धागों से, साबित इनको, पर, नहीं जवानी छोड़ेगी, सिके आगे झुक गये सिद्धियों के स्वामी, उस जादू को कुछ नयी आंधियां तोड़ेंगी। ऐसा टूटेगा मोह, एक दिन के भीतर, इस राग-रंग की पूरी बर्बादी होगी, जब तक न देश के घर-घर में रेशम होगा, तब तक दिल्ली के भी तन पर खादी होगी।

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