मनुष्यता
है बहुत बरसी धरित्री पर अमृत की धार; पर नहीं अब तक सुशीतल हो सका संसार। भोग लिप्सा आज भी लहरा रही उद्दाम; बह रही असहाय नर कि भावना निष्काम। लक्ष्य क्या? उद्देश्य क्या? क्या अर्थ? यह नहीं यदि ज्ञात तो विज्ञानं का श्रम व्यर्थ। यह मनुज, जो ज्ञान का आगार; यह मनुज, जो सृष्टि का श्रृंगार। छद्म इसकी कल्पना, पाखण्ड इसका ज्ञान; यह मनुष्य, मनुष्यता का घोरतम अपमान।

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