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वैर की परनालियों में हँस-हँस के हमने सींची जो राजनीति की रेती उसमें आज बह रही खूँ की नदियाँ हैं कल ही जिसमें ख़ाक-मिट्टी कह के हमने थूका था...

घिर रही है साँझ हो रहा है समय घर कर ले उदासी तौल अपने पंख, सारस दूर के ...

धक्-धक् धक्-धक् ओ मेरे दिल! तुझ में सामथ्र्य रहे जब तक तू ऐसे सदा तड़पता चल! बोधी तरु की छाया नीचे जिज्ञासु बने-आँखें मीचे- थे नेत्र खुल गये गौतम के जब प्रज्ञा के तारे चमके;...

हे अमिताभ ! नभ पूरित आलोक, सुख से, सुरुचि से, रूप से, भरे ओक : हे अवलोकित...

सभी से मैं ने विदा ले ली: घर से, नदी के हरे कूल से, इठलाती पगडंडी से...

चाँदनी चुपचाप सारी रात- सूने आँगन में जाल रचती रही । मेरी रूपहीन अभिलाषा...

शिशिर ने पहन लिया वसंत का दुकूल गंध बन उड़ रहा पराग धूल झूल काँटे का किरीट धारे बने देवदूत पीत वसन दमक उठे तिरस्कृत बबूल...

मेरा घर दो दरवाज़ों को जोड़ता एक घेरा है मेरा घर दो दरवाज़ों के बीच है...

खींच कर ऊषा का आँचल इधर दिनकर है मन्द हसित, उधर कम्पित हैं रजनीकान्त प्रतीची से हो कर चुम्बित। देख कर दोनों ओर प्रणय खड़ी क्योंकर रह जाऊँ मैं? छिपा कर सरसी-उर में शीश आत्म-विस्मृत हो जाऊँ मैं!...

मेरे घोड़े की टाप चौखटा जड़ती जाती है आगे की नदी-व्योम, घाटी-पर्वत के आस-पास : मैं एक चित्र में...

साँप ! तुम सभ्य तो हुए नहीं नगर में बसना भी तुम्हें नहीं आया।...

क्योंकि मैं यह नहीं कह सकता कि मुझे उस आदमी से कुछ नहीं है...

जियो, मेरे आज़ाद देश की शानदार इमारतो जिनकी साहिबी टोपनुमा छतों पर गौरव ध्वज तिरंगा फहरता है लेकिन जिनके शौचालयों में व्यवस्था नहीं है कि निवृत्त होकर हाथ धो सकें।...

माँझी, मत हो अधिक अधीर। साँझ हुई सब ओर निशा ने फैलाया निडाचीर, नभ से अजन बरस रहा है नहीं दीखता तीर, किन्तु सुनो! मुग्धा वधुओं के चरणों का गम्भीर...

पहाड़ नहीं काँपता, न पेड़, न तराई; काँपती है ढाल पर के घर से नीचे झील पर झरी...

केंचुलें हैं, केंचुलें हैं, झाड़ दो। छल मकर की तनी झिल्ली फाड़ दो। साँप के विष-दाँत तोड़ उघाड़ दो। आजकल यह चलन है, सब जंतुओं की खाल पहने हैं-...

छिटक रही है चांदनी, मदमाती, उन्मादिनी, कलगी-मौर सजाव ले कास हुए हैं बावले,...

मैं कब कहता हूँ जग मेरी दुर्धर गति के अनुकूल बने, मैं कब कहता हूँ जीवन-मरू नंदन-कानन का फूल बने ? काँटा कठोर है, तीखा है, उसमें उसकी मर्यादा है, मैं कब कहता हूँ वह घटकर प्रांतर का ओछा फूल बने ? ...

माँ हम नहीं मानते-- अगली दीवाली पर मेले से हम वह गाने वाला टीन का लट्टू लेंगे हॊ लेंगे--...

इन्हीं तृण-फूस-छप्पर से ढंके ढुलमुल गँवारू झोंपड़ों में ही हमारा देश बसता है इन्हीं के ढोल-मादल-बाँसुरी के...

होने और न होने की सीमा-रेखा पर सदा बने रहने का असिधारा-व्रत जिस ने ठाना-सहज ठन गया जिस से- वही जिया। पा गया अर्थ। बार-बार जो जिये-मरे...

धक्-धक्, धक्-धक् ओ मेरे दिल! तुझ में सामथ्र्य रहे जब तक तू ऐसे सदा तड़पता चल! जब ईसा को दे कर सूली जनता न समाती थी फूली, हँसती थी अपने भाई की तिकटी पर देख देह झूली,...

भोर की प्रथम किरण फीकी। अनजाने जागी हो याद किसी की- अपनी मीठी नीकी। धीरे-धीरे उदित...

दूसरों के घर भीतर की ओर खुलते हैं रहस्यों की ओर जिन रहस्यों को वे खोलते नहीं ...

मैं देख रहा हूँ झरी फूल से पँखुरी -मैं देख रहा हूँ अपने को ही झरते। मैं चुप हूँ:...

दृष्टि-पथ से तुम जाते हो जब।   तब ललाट की कुंचित अलकों- तेरे ढरकीले आँचल को, ...

मैंने कहा-- डूब चांद। रात को सिहरने दे कुइँयों को मरने दे।...

उड़ गई चिड़िया काँपी, फिर थिर हो गई पत्ती।...

हृत वह शक्ति किये थी जो लड़ मरने को सन्नद्ध! हृत इन लौह शृंखलाओं में घिर कर, पैरों की उद्धत गति आगे ही बढऩे को तत्पर; व्यर्थ हुआ यह आज निहत्थे हाथों ही से वार-...

शिशर ने पहन लिया वसन्त का दुकूल गंध बह उड़ रहा पराग धूल झूले काँटे का किरीट धारे बने देवदूत पीत वसन दमक रहे तिरस्कृत बबूल...

ऊपर तुम, नंदा! नीचे तरु-रेखा से मिलती हरियाली पर बिखरे रेवड़ को...

पुल पर झुका खड़ा मैं देख रहा हूँ, अपनी परछाहीं सोते के निर्मल जल पर-- तल-पर, भीतर,...

प्रिय, मैं तुम्हारे ध्यान में हूँ! वह गया जग मुग्ध सरि-सा मैं तुम्हारे ध्यान में हूँ! तुम विमुख हो, किन्तु मैं ने कब कहा उन्मुख रहो तुम? साधना है सहसनयना-बस, कहीं सम्मुख रहो तुम!...

वही, वैसे ही अपने को पा ले, नहीं तो और मैंने कब, कहाँ तुम्हें पाया है? हाँ-- बातों के बीच की चुप्पियों में हँसी में उलझ कर अनसुनी हो गई आहों में...

माघ : कोहरे में अंगार की सुलगन अलाव के ताव के घेरे के पार सियार की आँखों में जलन सन्नाटे में जब-तब चिनगी की चटकन...

याद : सिहरन : उड़ती सारसों की जोड़ी याद : उमस : एकाएक घिरे बादल में कौंध जगमगा गई। सारसों की ओट बादल...

मैं ने देखा एक बूंद सहसा उछली सागर के झाग से-- रंगी गई क्षण-भर...

चुप-चाप चुप-चाप झरने का स्वर हम में भर जाए चुप-चाप चुप-चाप...

मैं ने देखा एक बूँद सहसा उछली सागर के झाग से; रंग गई क्षणभर,...

छोड़ दे, माँझी! तू पतवार। आती है दुकूल से मृदुल किसी के नूपुर की झंकार, काँप-काँप कर 'ठहरो! ठहरो!' की करती-सी करुण पुकार किन्तु अँधेरे में मलिना-सी, देख, चिताएँ हैं उस पार...