सारस अकेले
घिर रही है साँझ हो रहा है समय घर कर ले उदासी तौल अपने पंख, सारस दूर के इस देश में तू है प्रवासी! रात! तारे हों न हों रव हीनता को सघनतर कर दे अंधेरा तू अदीन! लिये हिय में चित्र ज्योति प्रदेश का करना जहाँ तुझको सवेरा! थिर गयी जो लहर, वह सो जाय तीर-तरु का बिम्ब भी अव्यक्त में खो जाय मेघ मरु मारुत मरण - अब आय जो सो आय! कर नमन बीते दिवस को, धीर! दे उसी को सौंप यह अवसाद का लघु पल निकल चल! सारस अकेले!

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