ओ मेरे दिल!-2
धक्-धक् धक्-धक् ओ मेरे दिल! तुझ में सामथ्र्य रहे जब तक तू ऐसे सदा तड़पता चल! बोधी तरु की छाया नीचे जिज्ञासु बने-आँखें मीचे- थे नेत्र खुल गये गौतम के जब प्रज्ञा के तारे चमके; सिद्धार्थ हुआ, जब बुद्ध बना, जगती ने यह सन्देश सुना- "तू संघबद्ध हो जा मानव! अब शरण धर्म की आ, मानव!" जिस आत्मदान से तड़प रही गोपा ने थी वह बात कही- जिस साहस से निज द्वार खड़े उस ने प्रियतम की भीख सही- "तू अन्धकार में मेरा था, आलोक देख कर चला गया; वह साधन तेरे गौरव का गौरव द्वारा ही छला गया- पर मैं अबला हूँ, इसीलिए कहती हूँ, प्रणत प्रणाम किये, मैं तो उस मोह-निशा में भी ओ मेरे राजा! तेरी थी; अब तुझ से पा कर ज्ञान नया यह एकनिष्ठ मन जान गया मैं महाश्रमण की चेरी हूँ-ओ मेरे भिक्षुक! तेरी हूँ!" वह मर्माहत, वह चिर-कातर, पर आत्मदान को चिर-तत्पर, युग-युग से सदा पुकार रहा औदार्य-भरा नारी का उर! तुझ में सामथ्र्य रहे जब तक तू ऐसे सदा तड़पता चल- धक्-धक्, धक्-धक् ओ मेरे दिल!

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