जियो, मेरे
जियो, मेरे आज़ाद देश की शानदार इमारतो जिनकी साहिबी टोपनुमा छतों पर गौरव ध्वज तिरंगा फहरता है लेकिन जिनके शौचालयों में व्यवस्था नहीं है कि निवृत्त होकर हाथ धो सकें। (पुरखे तो हाथ धोते थे न? आज़ादी ही से हाथ धो लेंगे, तो कैसा?) जियो, मेरे आज़ाद देश के शानदार शासको जिनकी साहिबी भेजे वाली देशी खोपड़ियों पर चिट्टी दूधिया टोपियाँ फब दिखाती हैं, जिनके बाथरूम की संदली, अँगूरी, चंपई, फ़ाख्तई रंग की बेसिनी, नहानी, चौकी तक की तहज़ीब सब में दिखता है अँग्रेज़ी रईसी ठाठ लेकिन सफाई का कागज़ रखने की कंजूस बनिए की तमीज़... जियो, मेरे आज़ाद देश के सांस्कृतिक प्रतिनिधियो जो विदेश जाकर विदेशी नंग देखने के लिए पैसे देकर टिकट खरीदते हो पर जो घर लौटकर देसी नंग ढकने के लिए ख़ज़ाने में पैसा नहीं पाते, और अपनी जेब में-पर जो देश का प्रतिनिधि हो वह जेब में हाथ डाले भी तो क्या ज़रूरी है कि जेब अपनी हो? जियो, मेरे आज़ाद देश के रौशन ज़मीर लोक-नेताओ : जिनकी मर्यादा वह हाथी का पैर है जिसमें सबकी मर्यादा समा जाती है- जैसे धरती में सीता समा गई थी! एक थे वह राम जिन्हें विभीषण की खोज में जाना पड़ा, जाकर जलानी पड़ी लंका : एक है यह राम-राज्य, बजे जहाँ अविराम विराट् रूप विभीषण का डंका! राम का क्या काम यहाँ? अजी राम का नाम लो। चाम, जाम, दाम, ताम-झाम, काम- कितनी धर्म-निरपेक्ष तुकें अभी बाकी हैं। जो सधे, साध लो, साधो- नहीं तो बने रहो मिट्टी के माधो।

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