कतकी पूनो
छिटक रही है चांदनी, मदमाती, उन्मादिनी, कलगी-मौर सजाव ले कास हुए हैं बावले, पकी ज्वार से निकल शशों की जोड़ी गई फलांगती-- सन्नाटे में बाँक नदी की जगी चमक कर झाँकती ! कुहरा झीना और महीन, झर-झर पड़े अकास नीम; उजली-लालिम मालती गन्ध के डोरे डालती; मन में दुबकी है हुलास ज्यों परछाईं हो चोर की-- तेरी बाट अगोरते ये आँखें हुईं चकोर की !

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