चाँदनी चुपचाप सारी रात
चाँदनी चुपचाप सारी रात- सूने आँगन में जाल रचती रही । मेरी रूपहीन अभिलाषा अधूरेपन की मद्धिम- आँच पर तचती रही । व्यथा मेरी अनकही आनन्द की सम्भावना के मनश्चित्रों से परचती रही । मैं दम साधे रहा मन में अलक्षित आँधी मचती रही । प्रात बस इतना कि मेरी बात सारी रात उघड़ कर वासना का रूप लेने से बचती रही ।

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