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गींज गए कपड़ों-सा उतारा हुआ अम्बर है, मैली हुई मौन शाम फैली है अनकही बतों की, और हवा डूब गई नावों के...

अब इंसान को मर कर ले गया है हैवान बेकार हो गए हैं उसके कोट पतलून ज्ञान और गुमान के...

हमने जितनी बार पुकारा दीवारों पर पाहन मारा हिला न डोला मौन तुम्हारा टूटा केवल दुर्ग हमारा।...

दर्पण में खड़ी हो तुम वसन्तोत्सव की मुद्रा में फेंक कर पीछे शीश से उतर कर नीचे जाता अंधकार...

आग लगे इस राम-राज में ढोलक मढ़ती है अमीर की चमड़ी बजती है गरीब की खून बहा है राम-राज में...

पेड़ अमावस के अन्धकार में लोप ज़मीन पर खड़े ज़रूर हैं जैसे हम शोक के समुद्र में डूबे अतल मे पड़े मज़बूर हैं।...

दिन झर गया जैसे फूल, संध्या समय आकाश के...

अब इस बार पहली बार सिंह और पंडित की...

पहला पानी गिरा गगन से उमँड़ा आतुर प्यार, हवा हुई, ठंढे दिमाग के जैसे खुले विचार। भीगी भूमि-भवानी, भीगी समय-सिंह की देह,...

ऊपर गर्जन-तर्जन करते, मेघ मंडलाकार घहरते, क्षण-क्षण...

आँख खुली कर उठा करेजा कड़का। धूल झाड़ कर...

जिए हम गुलाबों का दरिया, महकता-मचलता लिये हम। बनाए वसंती-नवेली को अपना,...

बांध अमल आलोक अलक से, मौन मूंद दृग-दोष पलक से, काल रहा तन तोड़ फलक से।...

डंका बजा गाँव के भीतर, सब चमार हो गए इकट्ठा। एक उठा बोला दहाड़कर : “हम पचास हैं,...

समुद्र वह है जिसका धैर्य छूट गया है दिककाल में रहे-रहे ! समुद्र वह है...

कवि! वह कविता जिसे छोड़ कर चले गए तुम, अब वह सरिता काट रही है प्रान्त-प्रान्त की दुर्दम कुण्ठा--जड़ मति-कारा...

सर्र से निकल गई चोर की मोटर सिपाही देखता रह गया इधर से उधर...

पड़ने को पड़ गई है लाल पर श्याम की सुकेशी छाया उतरने को उतर आया है जलती मशाल पर आषाढ़ का उन्मादी मेघ,...

गाँव की सड़क शहर को जाती है, शहर छोड़कर जब गाँव...

ठप्प कर दिया गया है अब बच्चों का प्रजनन, जन्म के बाद का जीना हराम हो गया है...

प्राप्य से परे अप्राप्य की ओर चला जा रहा है मनुष्य समाधि में नहीं-- अजान के ज्ञान में समाने...

अब पहरुए आदमी की चाँदमारी...

लेनिन एक व्यक्ति था पहले, नामों में एक नाम था पहले, सबकी जबान पर चढ़ा।...

दल बदल के बादलों का छल खुला जल मिला तो वह मिला विष से घुला...

घर के बाहर खड़ी नीम की हरियाली पर बैठे कौए आकर यहाँ शाम से पहले एक साथ ही काँव-काँव करते हैं कर्कश शान्ति भंग होती है उनके...

धरती घूमी, छिपा ओट में सूरज! सूर्यमुखी अब सूर्य-विमुख...

सम्भोग की मुद्रा में नग्न खड़े हैं खुले आम नर और नारी...

प्यार-पलाश खिला फूला है वन में, नहीं ईंट-पत्थर के भव्य भवन में-...

ठाट-बाट के सुविधा-भोगी ये साधक-आराधक धन के निहित स्वार्थ में लीन निरंतर बने हुए हैं बाधक जन के...

रवि के खरतर शर से मारी, क्षीण हुई तन-मन से हारी, केन हमारी तड़प रही है गरम रेत पर जैसे बिजली...

राग-रंग की छविशाला के राजमंच पर आमंत्रित भद्रों के सम्मुख भृगु-सा भास्वर शासन के ऊपर बैठा बज्रासन मारे वह भव-भारत की जन-वीणा बजा रहा है...

नदी है अब भी है तट के पास तट से सटी...

टूटी हिम की टेक हिंडोले वन के डोले, जागे जोगी शैल मनोभव लोचन खोले।...

तुम पड़ी हो शान्त सम्मुख स्वप्नदेही दीप्त यमुना बाँसुरी का गीत जैसे पाँखुरी पर पौ फटे की चेतना जैसे क्षितिज पर...

अजीब बात है कि कुत्ते उस पर भूँकते हैं और आदमी उस पर थूकते हैं और एक ही वह कि उसी रास्ते चलता चला जा रहा है बेख़बर !...

समर्पित खड़ा है म्यूजियम में आदमी का दशावतारी चिंतन,...

आलोक की हो गई है अंधकार से साँठ-गाँठ कौन है कि अब अंधकार का उद्घाटन करे ?...

चुप-बोलती चांदनी में, बोलता है चांद आसमान का...

उन्नत पेड़ पलाश के ढाल लिए रण में खड़े, सम्मुख लड़ते सूर्य से बाँह बली ऊपर किए...

न डूबे हैं जहाँ न डूबते हैं वहाँ डूबते हैं...