गींज गए कपड़ों-सा उतारा हुआ अम्बर है,
मैली हुई मौन शाम फैली है
अनकही बतों की,
और हवा डूब गई नावों के
पाल लिए चलती है।
नाटकीय रंगों का रंगमंच सूना है
न ही कोई नर्तक है,
न ही कोई वादक है,
न ही कोई गायक है;
हर्ष की हिलोरों को
पाँव से दबाए खड़ा सैनिक है।
काई मढ़े पानी में सोई कहीं शोभा है,
चंचला अचंचल है--चारों ओर--
केश खोले चिन्ता है।
धुएँ की अवस्था में देश-काल धुँधला है
मेरा मन ऎसी शाम देख कर सिहरता है,
रात जाने कैसी हो, मेरा मन डरता है।