दिन झर गया
दिन झर गया जैसे फूल, संध्या समय आकाश के श्याम तरु से धरातल पर, न रही गन्ध, न रही छटा, आई रात जैसे घटा उमड़ आई बरसात की, खुली कबरी, अलक छटे, कामिनी के ढँके कुच के कनक-कलसे मेरु भू के, यह त्रियामा त्रिया तम की, वासना की अधवामा-- मुझे अपने भरे भुज में कसे उर से विवश-व्याकुल छल रही है।

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