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सत्य बतलाना तुमने उन्हें क्यों नहीं रोका? क्यों नहीं बताई राह? क्या उनका किसी देशद्रोही से वादा था?...

जब जब श्लथ मस्तक उठाऊँगा इसी विह्वलता से गाऊँगा। इस जन्म की सीमा-रेखा से लेकर बाल-रवि के दूसरे उदय तक...

अब हम इस पथ पर कभी नहीं आएँगे। तुम अपने घर के पीछे जिन ऊँची ऊँची दीवारों के नीचे मिलती थीं, उनके साए...

अब तक ग्रह कुछ बिगड़े बिगड़े से थे इस मंगल तारे पर नई सुबह की नई रोशनी हावी होगी अँधियारे पर उलझ गया था कहीं हवा का आँचल अब जो छूट गया है एक परत से ज्यादा राख़ नहीं है युग के अंगारे पर।...

हर घर में कानाफूसी औ’ षडयंत्र, हर महफ़िल के स्वर में विद्रोही मंत्र, क्या नारी क्या नर क्या भू क्या अंबर...

आँगन में काई है, दीवारें चिकनीं हैं, काली हैं, धूप से चढ़ा नहीं जाता है, ओ भाई सूरज! मैं क्या करूँ?...

कहीं पे धूप की चादर बिछा के बैठ गए कहीं पे शाम सिरहाने लगा के बैठ गए । जले जो रेत में तलवे तो हमने ये देखा बहुत से लोग वहीं छटपटा के बैठ गए ।...

सिगरेट के बादलों का घेरा बीच में जिसके वह स्वप्न चित्र मेरा— जिसमें उग रहा सवेरा साँस लेता है, छिन्न कर जाते हैं निर्मम हवाओं के झोंके;...

आज सड़कों पर लिखे हैं सैकड़ों नारे न देख, घ्रर अंधेरा देख तू आकाश के तारे न देख। एक दरिया है यहां पर दूर तक फैला हुआ, आज अपने बाज़ुओं को देख पतवारें न देख।...

फेनिल आवर्त्तों के मध्य अजगरों से घिरा हुआ विष-बुझी फुंकारें सुनता-सहता,...

सूने घर में किस तरह सहेजूँ मन को। पहले तो लगा कि अब आईं तुम, आकर अब हँसी की लहरें काँपी दीवारों पर खिड़कियाँ खुलीं अब लिये किसी आनन को।...

“—आह, ओ नादान बच्चो! दिग्विजय का अश्व है यह, गले में इसके बँधा है जो सुनहला-पत्र मत खोलो,...

गाओ...! काई किनारे से लग जाए अपने अस्तित्व की शुद्ध चेतना जग जाए जल में...

गीत तेरा मन कँपाता है। शक्ति मेरी आजमाता है। न गा यह गीत, जैसे सर्प की आँखें...

मुझे लिखना वह नदी जो बही थी इस ओर! छिन्न करती चेतना के राख के स्तूप, क्या अब भी वहीं है?...

अपाहिज व्यथा को वहन कर रहा हूँ तुम्हारी कहन थी, कहन कर रहा हूँ ये दरवाज़ा खोलें तो खुलता नहीं है इसे तोड़ने का जतन कर रहा हूँ ...

एक बार फिर हारी हुई शब्द-सेना ने मेरी कविता को आवाज़ लगाई— “ओ माँ! हमें सँवारो।...

मैने यह मोम का घोड़ा, बड़े जतन से जोड़ा, रक्त की बूँदों से पालकर सपनों में ढालकर...

नहीं! अभी रहने दो! अभी यह पुकार मत उठाओ! नगर ऐसे नहीं हैं शून्य! शब्दहीन!...

माना इस बस्ती में धुआँ है खाई है, खंदक है, कुआँ है;...

दीवार, दरारें पड़ती जाती हैं इसमें दीवार, दरारें बढ़ती जाती हैं इसमें तुम कितना प्लास्टर औ’ सीमेंट लगाओगे कब तक इंजीनियरों की दवा पिलाओगे...

कैसे मंज़र सामने आने लगे हैं गाते-गाते लोग चिल्लाने लगे हैं अब तो इस तालाब का पानी बदल दो ये कँवल के फूल कुम्हलाने लगे हैं ...

ओ परांगमुखी प्रिया! कोरे कागज़ों को रँगने बैठा हूँ असत्य क्यों कहूँगा तुमने कुछ जादू कर दिया।...

क्या भरोसा लहर कब आए? किनारे डूब जाएँ? तोड़कर सारे नियंत्रण...

परिन्दे अब भी पर तोले हुए हैं हवा में सनसनी घोले हुए हैं तुम्हीं कमज़ोर पड़ते जा रहे हो तुम्हारे ख़्वाब तो शोले हुए हैं ...

तुमको अचरज है--मैं जीवित हूँ! उनको अचरज है--मैं जीवित हूँ! मुझको अचरज है--मैं जीवित हूँ! लेकिन मैं इसीलिए जीवित नहीं हूँ--...

नफ़रत औ’ भेद-भाव केवल मनुष्यों तक सीमित नहीं रह गया है अब। मैंने महसूस किया है मेरे घर में ही...

देख, दहलीज़ से काई नहीं जाने वाली ये ख़तरनाक सचाई नहीं जाने वाली कितना अच्छा है कि साँसों की हवा लगती है आग अब उनसे बुझाई नहीं जाने वाली ...

भूख है तो सब्र कर रोटी नहीं तो क्या हुआ आजकल दिल्ली में है ज़ेर-ए-बहस ये मुदद्आ । मौत ने तो धर दबोचा एक चीते कि तरह ज़िंदगी ने जब छुआ तो फ़ासला रखकर छुआ । ...

आत्मसिद्ध थीं तुम कभी! स्वयं में समोने को भविष्यत् के स्वप्न नयनों से वेगवान सुषमा उमड़ती थी, आश्वस्त अंतस की प्रतिज्ञा की तरह...

“मनुष्यों जैसी पक्षियों की चीखें और कराहें गूँज रही हैं, टीन के कनस्तरों की बस्ती में हृदय की शक्ल जैसी अँगीठियों से...

प्रश्न अभिव्यक्ति का है, मित्र! किसी मर्मस्पर्शी शब्द से या क्रिया से,...

ये धुएँ का एक घेरा कि मैं जिसमें रह रहा हूँ मुझे किस क़दर नया है, मैं जो दर्द सह रहा हूँ ये ज़मीन तप रही थी ये मकान तप रहे थे तेरा इंतज़ार था जो मैं इसी जगह रहा हूँ...

अब अंतर में अवसाद नहीं चापल्य नहीं उन्माद नहीं सूना-सूना सा जीवन है कुछ शोक नहीं आल्हाद नहीं ...

रोज़ जब रात को बारह का गजर होता है यातनाओं के अँधेरे में सफ़र होता है कोई रहने की जगह है मेरे सपनों के लिए वो घरौंदा ही सही, मिट्टी का भी घर होता है...

धूप ये अठखेलियाँ हर रोज़ करती है एक छाया सीढ़ियाँ चढ़ती—उतरती है यह दिया चौरास्ते का ओट में ले लो आज आँधी गाँव से हो कर गुज़रती है...

घंटियों की आवाज़ कानों तक पहुँचती है एक नदी जैसे दहानों तक पहुँचती है अब इसे क्या नाम दें, ये बेल देखो तो कल उगी थी आज शानों तक पहुँचती है...

वो निगाहें सलीब है हम बहुत बदनसीब हैं आइये आँख मूँद लें ये नज़ारे अजीब हैं...

एक अन्धकार बरसाती रात में बर्फ़ीले दर्रों-सी ठंडी स्थितियों में अनायास दूध की मासूम झलक सा हंसता, किलकारियां भरता...

एक तीखी आँच ने इस जन्म का हर पल छुआ, आता हुआ दिन छुआ हाथों से गुजरता कल छुआ...