आत्म-वर्जना
अब हम इस पथ पर कभी नहीं आएँगे। तुम अपने घर के पीछे जिन ऊँची ऊँची दीवारों के नीचे मिलती थीं, उनके साए अब तक मुझ पर मँडलाए, अब कभी न मँडलाएँगें। दुख ने झिझक खोल दी वे बिनबोले अक्षर जो मन की अभिलाषाओं को रूप न देकर अधरों में ही घुट जाते थे अब गूँजेंगे, कविता कहलाएँगें, पर हम इस पथ पर कभी नहीं आएँगें।

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