परांगमुखी प्रिया से
ओ परांगमुखी प्रिया! कोरे कागज़ों को रँगने बैठा हूँ असत्य क्यों कहूँगा तुमने कुछ जादू कर दिया। खुद से लड़ते खुद को तोड़ते हुए दिन बीता करते हैं, बदली हैं आकृतियाँ: मेरे अस्तित्व की इकाई को तुमने ही एक से अनेक कर दिया! उँगलियों में मोड़ कर लपेटे हुए कुंतलों-से मेरे विश्वासों की रूपरेखा यही थी? रह रहकर मन में उमड़ते हुए वात्याचक्रों के बीच एकाकी जीर्ण-शीर्ण पत्तों-से नाचते-भटकते मेरे निश्चय क्या ऐसे थे? ज्योतिषी के आगे फैले हुए हाथ-सी प्रश्न पर प्रश्न पूछती हुई— मेरे ज़िंदगी, क्या यही थी? नहीं.... नहीं थी यह गति! मेरे व्यक्तित्व की ऐसी अंधी परिणति!! शिलाखंड था मैं कभी, ओ परांगमुखी प्रिया! सच, इस समझौते ने बुरा किया, बहुत बड़ा धक्का दिया है मुझे कायर बनाया है। फिर भी मैं क़िस्मत को दोष नहीं देता हूँ, घुलता हूँ खुश होकर, चीख़कर, उठाकर हाथ आत्म-वंचना के इस दुर्ग पर खड़े होकर तुमसे ही कहता हूँ— मुझमें पूर्णत्व प्राप्त करती है जीने की कला; खंड खंड होकर जिसने जीवन-विष पिया नहीं, सुखमय, संपन्न मर गया जो जग में आकर रिस-रिसकर जिया नहीं, उसकी मौलिकता का दंभ निरा मिथ्या है निष्फल सारा कृतित्व उसने कुछ किया नहीं।

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