अनुरक्ति
जब जब श्लथ मस्तक उठाऊँगा इसी विह्वलता से गाऊँगा। इस जन्म की सीमा-रेखा से लेकर बाल-रवि के दूसरे उदय तक हतप्रभ आँखों के इसी दायरे में खींच लाना तुम्हें मैं बार बार चाहूँगा! सुख का होता स्खलन दुख का नहीं, अधर पुष्प होते होंगे— गंध-हीन, निष्प्रभाव, छूछे....खोखले....अश्रु नहीं; गेय मेरा रहेगा यही गर्व; युग-युगांतरों तक मैं तो इन्हीं शब्दों में कराहूँगा। कैसे बतलाऊँ तुम्हें प्राण! छूटा हूँ तुमसे तो क्या? वाण छोड़ा हुआ भटका नहीं करता! लगूँगा किसी तट तो— कहीं तो कचोटूँगा! ठहरूँगा जहाँ भी—प्रतिध्वनि जगाऊँगा। तुम्हें मैं बार बार चाहूँगा!

Read Next