जभी तो
नफ़रत औ’ भेद-भाव केवल मनुष्यों तक सीमित नहीं रह गया है अब। मैंने महसूस किया है मेरे घर में ही बिजली का सुंदर औ’ भड़कदार लट्टू— कुरसी के टूटे हुए बेंत पर, खस्ता तिपाई पर, फटे हुए बिस्तर पर, छिन्न चारपाई पर, कुम्हलाए बच्चों पर, अधनंगी बीवी पर— रोज़ व्यंग्य करता है, जैसे वह कोई ‘मिल-ओनर’ हो। जभी तो—मेरे नसों में यह खून खौल उट्ठा है, बंकिम हुईं हैं भौंह, मैंने कुछ तेज़ सा कहा है; यों मुझे क्या पड़ी थी जो अपनी क़लम को खड्ग बनाता मैं?

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