शब्दों की पुकार
एक बार फिर हारी हुई शब्द-सेना ने मेरी कविता को आवाज़ लगाई— “ओ माँ! हमें सँवारो। थके हुए हम बिखरे-बिखरे क्षीण हो गए, कई परत आ गईं धूल की, धुँधला सा अस्तित्व पड़ गया, संज्ञाएँ खो चुके...! लेकिन फिर भी अंश तुम्हारे ही हैं तुमसे पृथक कहाँ हैं? अलग-अलग अधरों में घुटते अलग-अलग हम क्या हैं? (कंकर, पत्थर, राजमार्ग पर!) ठोकर खाते हुए जनों की उम्र गुज़र जाएगी, हसरत मर जाएगी यह— ‘काश हम किसी नींव में काम आ सके होते, हम पर भी उठ पाती बड़ी इमारत।’ ओ कविता माँ! लो हमको अब किसी गीत में गूँथो नश्वरता के तट से पार उतारो और उबारो— एकरूप शृंखलाबद्ध कर अकर्मण्यता की दलदल से। आत्मसात होने को तुममें आतुर हैं हम क्योंकि तुम्हीं वह नींव इमारत की बुनियाद पड़ेगी जिस पर। शब्द नामधारी सारे के सारे युवक, प्रौढ़ औ’ बालक, एक तुम्हारे इंगित की कर रहे प्रतीक्षा, चाहे जिधर मोड़ दो कोई उज़र नहीं है— ऊँची-नीची राहों में या उन गलियों में जहाँ खुशी का गुज़र नहीं है—; लेकिन मंज़िल तक पहुँचा दो, ओ कविता माँ! किसी छंद में बाँध विजय का कवच पिन्हा दो, ओ कविता माँ! धूल-धूसरित हम कि तुम्हारे ही बालक हैं हमें निहारो! अंक बिठाओ, पंक्ति सजाओ, ओ कविता माँ!” एक बार फिर कुछ विश्वासों ने करवट ली, सूने आँगन में कुछ स्वर शिशुओं से दौड़े, जाग उठी चेतनता सोई; होने लगे खड़े वे सारे आहत सपने जिन्हें धरा पर बिछा गया था झोंका कोई!

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