सूर्य का स्वागत (कविता)
आँगन में काई है, दीवारें चिकनीं हैं, काली हैं, धूप से चढ़ा नहीं जाता है, ओ भाई सूरज! मैं क्या करूँ? मेरा नसीबा ही ऐसा है! खुली हुई खिड़की देखकर तुम तो चले आए, पर मैं अँधेरे का आदी, अकर्मण्य...निराश... तुम्हारे आने का खो चुका था विश्वास। पर तुम आए हो--स्वागत है! स्वागत!...घर की इन काली दीवारों पर! और कहाँ? हाँ, मेरे बच्चे ने खेल खेल में ही यहाँ काई खुरच दी थी आओ--यहाँ बैठो, और मुझे मेरे अभद्र सत्कार के लिए क्षमा करो। देखो! मेरा बच्चा तुम्हारा स्वागत करना सीख रहा है।

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